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6 May 2024 · 1 min read

एक शख्स

#दिनांक:-5/5/2024
#शीर्षक:-एक शख्स।

उम्र नाउम्मीद सी बढ़ती जा रही
वक्त लम्हा-लम्हा गुजरता जा रहा,
सोचती हूँ जब मोहब्बत के बारे में,
सारा जहां इश्क में डूबता जा रहा ।
बेखबर बेचैन सी बेचैनियां हैं ना जाने क्यूँ?
मोड़ तो बहुत हैं पर, एक ही राह राही चला जा रहा ।
रातें बेतरतीब-सी, तो शाम अस्त-व्यस्त ,
प्रेमिल गमों मे दिवालिया,
पर प्रेम है कि अपने में मस्त हुआ जा रहा।
जिन्दादिल पर जिन्दादिली खतम पड़ी सी,
फिर भी जिन्दगी जीवन जिये जा रहा।

एक शख्स,
बस एक शक्स मेरा ना हुआ,
वैसे तो सारी दुनिया मेरा दिवाना हुआ जा रहा।
किसी को पता नहीं हाल क्या है दूसरे का,
पर हर दिल, दर्द में भी बेहाल-सा हँसा जा रहा ।
बेकाबू जज्बात, बेकार बना दिये हालात,
हमेशा रास्ता मधुशाला का दिखाता जा रहा।
इश्क नशा सा चस्का लगता सभी को,
नशा भी, मदहोश नशा खुद होता जा रहा।
हम भी प्यार से बगावत करने चले थे कभी,
खाक कर सारा घमंड प्यार हँसता रहा।
सुकुन की तो बात ही निराली ,
जब जी चाहे आता-जाता रहा।
इस कदर तोड़ कर ख्याब किसी का,
कभी भी आकर हर किसी को सताता रहा।

(स्वरचित)
प्रतिभा पाण्डेय “प्रति”
चेन्नई

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