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29 Jan 2024 · 1 min read

इक्कीसवीं सदी का भागीरथ

इतिहास!
सदैव दोहराता है स्वयं को
युगों पूर्व
सगरपुत्र!
शापित हुए थे
भस्मीभूत हुए थे
अपनी अदूरदर्शिता के कारण
तब शुरू हुई
उनके उद्धार की प्रक्रिया
और उनका उद्धार सम्भव था
केवल मात्र गंगावतरण से
परन्तु गंगा माँ तो बंदिनी थी ब्रह्मकमण्डल की
उसे धरती पर उतारने के लिए
करनी पड़ी थी तपस्या
कई पीढ़ियों को
करने पड़े थे भागीरथ प्रयास
तब कहीं अवतरण हुआ था
भागीरथ का
जिन्होंने गंगा को
निकाल कर ब्रह्म कमण्डल और शिव की जटा से
दी थी गति और दिशा
आज फिर इतिहास ने दोहराया है स्वयं को
सहस्त्रों वर्षों से परतन्त्र
भारतीय संस्कृति
स्वतंत्र हुई
आक्रांताओं के कारागार से
और फिर सिमटकर रह गई
शिवजटा समान तम्बुओं में
और करती रही प्रतीक्षा
किसी भागीरथ की
राम!
राम तो कण-कण में हैं
रोम-रोम में हैं
उन्हें कौन बंधन में बाँध सका है?
वे तो देख रहे थे नाटक
सगरपुत्रों की हवा में उड़ती भस्म का
जोह रहे थे बाट
किसी भागीरथ की
और हाँ! आज
अंततः आ ही गया वह
आ ही गया
जाग उठा वह इक्कीसवीं सदी का भागीरथ
अपने पीछे हुंकार लाया जन-गंगा
तोड़ डाले उसने सारे
अनुबंध/प्रतिबंध और अवरोध
जला डाले/ उखाड़ फेंके सारे तम्बू
जिनमें बंदिनी थी
हमारी-तुम्हारी संस्कृति
और धो डाला सारा कलंक
भारत माँ के माथे का
सहस्त्राब्दियों पुराना

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