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29 Dec 2023 · 1 min read

क्रम में

मन शांत है
पर भाषा कुलबुलाती है
अपनी पहचान लिए
इतिहास बनाती है

रोज़ ख्वाब बुनते
शाम को ढ़ल जाती है
फिर कल भोर
नई स्वप्न सज कर आती है

मेले लगे हैं
विक्रेता हैं खरीदार नहीं
बाज़ार तो छांव देती
किन्तु, घर के दहलीज़ नहीं

हृदय मचल उठता
देह अब साथ नहीं देती
झुर्रियां निकल आई
धीरे – धीरे, शनै – शनै

बिछौने पर सो जाता हूँ
अपने कोई नहीं होते हैं
अभी बुझा हुआ, ठहरा
द्युति में कांति ले आता हूँ

बिखर जाऊंगा समुद्र सी
ज्वार – भाटे ले खड़ा हूँ
ताज पहनेंगे हम भी कभी
अभी पार होने के क्रम में हूँ

धुरी पे मेरे चतुष्चद्र लगेंगे
नभ से मेघ लोकने को है
धर नीर के अधर में लिप्त
नई नवेली डोली में बैठी है।

Language: Hindi
1 Like · 231 Views
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