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13 Dec 2023 · 1 min read

वाचाल सरपत

हे गुण ज्ञानी नहि अभिमानी
मै छा जाता बनती ढानी ।

जब मैं खेतों का प्रहरी बन जाता
चलती घर की दाना पानी ।

हमारी सेठा की कलमों से
लिखते – पढ़ते बनें “कलाम” ।

तृणकुटी बनाकर परशुराम की
वीर कर्ण सम नहि कोइ दानी।

हमारी पात में तीखी धार
काटे जिह्वा मरे फेटार ।

हमारे सूपों की फटकार
बनता चावल गेहूं ज्वार ।

जब मैं बन जाता हूं मंण्डप
होती शादी बढ़ता प्यार ।

रंगते मूंजा बनता भांडा
मौनी सिकहुला तौला धार ।

पूरी करता सौंच जरूरत
हमरी ओट में मिले निदान ।

जब हमरी मूंज से सजती अर्थी
सब मर जाता है अभिमान ।

फिर हमारी जरूरत होगी तुमको।
जब होगा नष्ट यहां विज्ञान ।।

-आनन्द मिश्र

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