Sahityapedia
Sign in
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
7 Dec 2023 · 7 min read

तेवरी में ‘शेडो फाइटिंग’ नहीं + योगेन्द्र शर्मा

————————————-
कविता कभी भी इतनी सामयिक नहीं रही, जितनी कि आज। आज की कविता [ खासतौर पर तेवरी ] पहले की तरह आकाश में उड़ने का प्रयास न करके जमीन से जुड़ने का प्रयास करती है। आज की कविता समाज को उसका चेहरा दिखाती है। उसके चिंतन, उसके चरित्र का लेखा-जोखा प्रस्तुत करती है। कभी जन-सामान्य की पीड़ा बन जाती है तो कभी इस कुव्यवस्था के घने अन्धकार में आशा की एक नहीं किरण।
‘तेवरी’ नाम है-उस तेवरयुक्त छन्दबद्ध कविता का, जिसमें आकाश की बात न होकर, माटी सुगन्ध है। जिसमें पाउडर या सेंट की सुगन्ध न होकर किसी श्रमिक का पसीना है। तेवरी जनमानस की भावनाओं की सरल अभिव्यक्ति है। वह नहीं चाहती कि जब जनसामान्य कभी कविता पढ़े तो शब्द और अर्थ की क्लिष्टता में खोकर रह जाये।
आजकल नितान्त वैयक्तिक सोच की कविताओं की बाढ़-सी आ गयी है। कविता को चन्द साहित्यिक सेठों बनाम लेखकों की मानसिक अय्याशी बना देने का कुचक्र रचा जा रहा है। तेवरी कविता जन-सामान्य के बीच पैदा हुई इस खाई को पाटना चाहती है।
तेवरी उन कविताओं का विरोध करती है, जिन्हें पहेली का पाजामा पहना दिया जाता है। शब्दजालों का सृजन कर संप्रेषण का गला घोंट देना तेवरी का स्वभाव नहीं है। वह निन्दा करती है- छायावादियों की ‘शेडो फाइटिंग’ का।
जब आदमी ही मर रहा हो तो पेड़-पौधों से बातें करना, हालात का मजाक उड़ाना नहीं तो और क्या है? जिस कविता का साधक और साध्य सर्वसाधारण हो, उसे ही तेवरी कहा जा सकता है। तेवरी सद्घोष है, आह्वान है, जेहाद है-
मैं आदमखोरों में लड़ लूँ,
तुझको चाकू बना लेखनी।
जो सरपंच बने बैठे हैं,
उन पे उंगली उठा लेखनी।
[रमेशराज, अभी जुबां कटी नहीं, पृ. 50]
अथवा
क्रोध की मुद्रा बनाओ दोस्तो,
जड़ व्यवस्था को हिलाओ दोस्तो!
[ सुरेश त्रस्त, अभी जुबां कटी नहीं, पृ. 40 ]
इतिहास गवाह है कि मानव जाति के शोषकों की संख्या और शक्ति, शोषितों की सम्मिलित शक्ति और संख्या से बहुत कम रही है। अस्तु अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिये उन्होंने सदा छल और कपट का सहारा लिया। कभी भय और पाखंड के किलों में आम आदमी की चेतना को कैद कर दिया गया तो कभी शोषित में से ही कुछ लोगों को अपना पिट्ठू बनाकर स्वयं को जनता का, समाज का उद्धारक या मसीहा घोषित करा दिया गया। उत्पीडि़त जनता ने जब भी अपने ऊपर हो रहे दमन का विरोध किया, उसे नये-नये शब्दजालों में उलझा दिया गया। तेवरी जन्म से ही शोषितों की पक्षधर है |
तेवरी हर पाखण्ड और ढकोसले का विरोध करती है। वस्तुतः मानव-बुद्धि की सीमा जहाँ समाप्त होती है, वहीं से ईश्वर की सीमा प्रारम्भ हो जाती है, अर्थात् जहाँ से मानवचेतना लुप्त होने लगती है, वहीं से ईश्वरत्व का अस्तित्व शुरू हो जाता है। इसीलिये ‘ईश्वर’ नाम का विचार इतना लचीला हो गया कि बुर्जुआ शोषक समाज ने इसे ही अपने शोषण का मूल आधर बना लिया। तेवरी हर उस साजिश का विरोध करती है जो मानव-चेतना को सीमित करे, कुंठित करे।
धार्मिक अंधविशवास पर चोट करते दृष्टव्य हैं तेवरी के कुछ तेवर-
लग रहा है आज हमको हर खुदा बहरा हुआ,
थक गये घंटे, सिसकती आरती अब देखिये।
[अजय अंचल, अभी जुबां कटी नहीं, पृ. 19]

टूटे मंदिर पे कोई नहीं फटकता है,
पूजा और पूँजीवाद एक रंग हैं प्यारे।
[योगेन्द्र शर्मा,अभी जुबां कटी नहीं, पृ.29]
तेवरी यह सत्य उजागर करती है कि इस देश की शिक्षा व्यवस्था उस लार्ड मैकाले की देन है-जिसे अंग्रेजी राज्य के लिए कुछ क्लर्क चाहिए थे। उसे अपने राज्य के लिए ऐसे पिट्ठुओं की जरूरत थी जो तन से भारतीय हों पर मन से अंग्रेज। आज के युवा को शिक्षा के नाम पर एक ऐसा ही बना-बनाया मिक्चर पिलाया जाता है। वर्षों की तपस्या के बाद उसे एक डिग्री मिलती है, जिसका अवमूल्यन न जाने कब का हो चुका है। रोजगार पर आधारित न होने के कारण अपनी शिक्षा का समुचित प्रयोग वह नहीं कर पाता।
एक दिशाहीन शिक्षा-प्रणाली ही है, जिसके कारण वह अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद अपने भाग्य को एक चौराहे पर खड़ा हुआ पाता है। उसे यह ज्ञात नहीं होता कि उसे किधर जाना है। दिशाहीनता के ही कारण अनेक प्रतिभाएँ कुंठित हो जाती हैं। आजकल एक युवा बेरोजगार युवक के हृदय में झाँकते तेवरी कुछ तेवर-
शहद लगाकर डिग्री को अब चाटिए श्रीमन्,
बेकारी की धूल यूँ ही फाँकिए श्रीमन्।
[योगेन्द्र शर्मा, अभी जुबां कटी नहीं, पृ.26]

दर-दर भटके शिक्षित यौवन,
कितना परेशान है भइया।
[अरुण लहरी, अभी जुबां कटी नहीं, पृ.11]
आज जब हम सामाजिक यथार्थ की बात करते हैं तो एक शब्द हम भुला नहीं सकते और वह शब्द है-महँगाई। बढ़ती हुई वैज्ञानिकता ने जहाँ जनजीवन को प्रभावित किया है, महँगाई ने मानवमूल्यों में ही फेर-बदल कर दिया है। आज की कमरतोड़ महँगाई में पैसे की अंधी दौड़ मची हुई है। पहले एक कमाने वाला बीस-बीस को खिला लेता था, आज हर व्यक्ति को अपनी रोटी-दाल के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। मानव-संस्कृति बदल चुकी है। तेवरी अपसंस्कृति का विरोध करती है |
घोर गरीबी में घर आया मेहमान भी किस तरह मुसीबत दिखाई देता है। द्रष्टव्य है उक्त यथार्थ को दिखलाती तेवरी का एक तेवर–
एक मुट्ठी अन्न भी हमको नहीं होता नसीब,
आजकल मेहमान का सत्कार कोई क्या करे।
[अजय अंचल ;अभी जुबां कटी नहीं, पृ. 18]
तेवरी यह हालात देखकर दुखी होती है कि बढ़ती हुई महँगाई ने सर्वसाधारण को आर्थिक रूप से पंगु बना दिया है, वहीं गिरती हुई कानून-व्यवस्था खौफ का कारण बनी हुई है। शाम के समय घर से बाहर हर नारी को अपने आभूषणों की, अपने सम्मान की चिन्ता मन में लगी रहती है। दिन-दहाड़े भरे बाजारों में, यहाँ तक कि न्यायालयों में, न्यायाधीश के सामने हत्याएँ हो रही हैं। सामूहिक बलात्कारों, हत्याओं, डकैतियों की बाढ़-सी आ गयी है।
हिंसक वातावरण निःसंदेह अकारण नहीं? क्या होगा उस खेत का जब उसकी मेंड ही उसे खाने लगेगी? रक्षक ही भक्षक हो गये हैं। कानून के रखवाले ही या तो स्वयं कानून तोड़ते हैं या दूसरों को ऐसा करने के लिए उकसाते हैं। थाने जो कानून और व्यवस्था के केन्द्र-बिन्दु थे, अब वही अपराधी पालने लगे हैं। दृष्टव्य है उक्त यथार्थ को दर्शाती तेवरियों के कुछ तेवर-
1.चोरों के सँग मिले हुये हैं,
सारे पहरेदार सखी री!
{सुरेश त्रस्त, अभी जुबां कटी नहीं, पृ.35}
2. बाह रे जुर्म तुझे क्या कहिये,
हाय थाने भी न छोड़े साहिब।
[योगेन्द्र शर्मा, अभी जुबां कटी नहीं, पृ.20]
3. इस तरह उनने भरा साहस सभी में यार अब,
हर शहर हर गाँव डाके पड़ रहे हैं आजकल।
[अरुण लहरी, अभी जुबां कटी नहीं ]
आजकल एक ओर जहाँ हत्यारों को हत्याओं की, डकैतों को डकैतियों की, बलात्कारियों को बलात्कार की खुली छूट है, व्यापारियों को भी इस बात की छूट मिल चुकी है कि वह अपनी वस्तु मनमाने दामों में बेचकर अपनी तिजोरी भर सकता है। वस्तुतः इस देश में हर पाँच वर्षों में आम चुनाव होते हैं और इन चुनावों में करोड़ों रुपया चन्दा एकत्रित किया जाता है। हर राजनैतिक पार्टी को अधिक से अधिक चन्दे की आवश्यकता महसूस होने लगती है और यह चन्दा इसी व्यापारी वर्ग से आता है। चुनाव में एक लाख रुपये चन्दे के देने के बाद वही व्यापारी दस-बीस लाख की चोरी का हकदार हो जाता है।
हर पूँजीपति को आजकल राजनीतिक संरक्षण मिला हुआ है और चोरों के पूँजीपति तो राजनीतिज्ञों की टकसाल बने हुए है। गरज यह है कि पूँजीवाद और राजनीति का गठबन्धन भी इतना दृढ़ और उघड़ा हुआ नहीं था जितना कि आज। प्रस्तुत है इस यथार्थ को इंगित करते हुए तेवरी के कुछ तेवर-
1. वही छिनरे वही डोली के संग हैं प्यारे,
देख ले ये सियासत के रंग हैं प्यारे।
[योगेन्द्र शर्मा ;अभी जुबां कटी नहीं, पृ.29]
2. है हंगामा शोर आजकल भइया रे,
हुए मसीहा चोर आज भइया।
[सुरेश त्रास्त ;अभी जुबां कटी नहीं, पृ.39]
3.संसद में है लोग भेडि़ए,
ये क्या मैंने सुना लेखनी।
[रमेशराज ;अभी जुबां कटी नहीं, पृ. 55]
यह भी एक सार्वभौमिक सत्य है कि जब दमन अपनी चरम सीमा पर होता है तो कहीं न कहीं विद्रोह की आग भड़कती ही है। लोग डरपोक और सहिष्णु सही, कहीं न कहीं आक्रोश का ज्वालामुखी फूटता ही है। प्रस्तुत है उक्त तथ्य को उजागर करने वाले कुछ तेवर-
महाजनों को देता गाली,
अब के ‘होरी’ मिला लेखनी।
‘गोबर’ शोषण सहते-सहते,
नक्सलवादी बना लेखनी।
[रमेशराज ;अभी जुबां कटी नहीं, पृ.53]
दरअसल साहित्य-सृजन एक साधना का विषय है। जब-जब यह व्यावसायिकता से जुड़ जाता है, जब-जब यह जीविकोपार्जन से जुड़ जाता है, तब-तब साहित्य विष से रिश्ता गाँठ लेता है और यथार्थ से मुँह मोड़ लेता है। वह सरकार की लल्लोचप्पी करके पदक बटोरने में लग जाता है और एक भाट का चोला पहन लेता है। तालियों की गड़गड़ाहट से बहुत दूर, व्यावसायिकता से परे आज तेवरीकार ऐसे साहित्य के सृजन में लगे हुए हैं जिसमें जनहित की भावना हो, सत्य बोलने का जोखिम हो।
तेवरी समसामयिक परिस्थितियों की देन है, अस्तु यथार्थ की भाषा भी है। आज परिस्थितियाँ सोचनीय हैं। दमन और शोषण अपनी चरम सीमा पर है, इसीलिए तेवरी को आक्रामक, जुझारू और सपाट बनाया गया है। वह निरन्तर संघर्ष और निर्माण में विश्वास रखती है। अंत में तेवरी के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कुछ तेवर-
ग़ज़ल की बात नहीं ये कोई,
हैं ये तेवरी के कोड़े साहिब।
[योगेन्द्र शर्मा ;अभी जुबां कटी नहीं, पृ.27]
मजूर तेवरी, किसान तेवरी,
गुलेल तेवरी, मचान तेवरी।
[ऋषम देव शर्मा ‘देवराज’]

140 Views

You may also like these posts

क्या बनाऊँ आज मैं खाना
क्या बनाऊँ आज मैं खाना
उमा झा
मजदूर हूँ साहेब
मजदूर हूँ साहेब
Dr. Ramesh Kumar Nirmesh
बाग़ तू भी लगा तितलियाँ आएगी ...
बाग़ तू भी लगा तितलियाँ आएगी ...
sushil yadav
हम बस भावना और विचार तक ही सीमित न रह जाए इस बात पर ध्यान दे
हम बस भावना और विचार तक ही सीमित न रह जाए इस बात पर ध्यान दे
Ravikesh Jha
मफ़उलु फ़ाइलातुन मफ़उलु फ़ाइलातुन 221 2122 221 2122
मफ़उलु फ़ाइलातुन मफ़उलु फ़ाइलातुन 221 2122 221 2122
Neelam Sharma
फूल का मुस्तक़बिल
फूल का मुस्तक़बिल
Vivek Pandey
पिता और पुत्र
पिता और पुत्र
Dinesh Yadav (दिनेश यादव)
कविताएं
कविताएं
पूर्वार्थ
यूं ही नहीं मैंने तेरा नाम ग़ज़ल रक्खा है,
यूं ही नहीं मैंने तेरा नाम ग़ज़ल रक्खा है,
डॉ. शशांक शर्मा "रईस"
हमने दीवारों को शीशे में हिलते देखा है
हमने दीवारों को शीशे में हिलते देखा है
डॉ. दीपक बवेजा
किसी भी वार्तालाप की यह अनिवार्यता है कि प्रयुक्त सभी शब्द स
किसी भी वार्तालाप की यह अनिवार्यता है कि प्रयुक्त सभी शब्द स
Rajiv Verma
न्याय निलामी घर में रक्खा है
न्याय निलामी घर में रक्खा है
Harinarayan Tanha
वयोवृद्ध कवि और उनका फेसबुक पर अबतक संभलता नाड़ा / मुसाफिर बैठा
वयोवृद्ध कवि और उनका फेसबुक पर अबतक संभलता नाड़ा / मुसाफिर बैठा
Dr MusafiR BaithA
बुढापा
बुढापा
Ragini Kumari
नज़रें बयां करती हैं, लेकिन इज़हार नहीं करतीं,
नज़रें बयां करती हैं, लेकिन इज़हार नहीं करतीं,
Keshav kishor Kumar
“*आओ जाने विपरीत शब्द के सत्य को*”
“*आओ जाने विपरीत शब्द के सत्य को*”
Dr. Vaishali Verma
आईने में देखकर खुद पर इतराते हैं लोग...
आईने में देखकर खुद पर इतराते हैं लोग...
Nitesh Kumar Srivastava
4151.💐 *पूर्णिका* 💐
4151.💐 *पूर्णिका* 💐
Dr.Khedu Bharti
लोग याद तभी करते हैं, उनकी जररूत के हिसाब से।
लोग याद तभी करते हैं, उनकी जररूत के हिसाब से।
Iamalpu9492
अमन राष्ट्र
अमन राष्ट्र
राजेश बन्छोर
कैनवास
कैनवास
Aman Kumar Holy
अभी बाकी है
अभी बाकी है
Vandna Thakur
#एक_और_बरसी
#एक_और_बरसी
*प्रणय*
प्रेम
प्रेम
Suman (Aditi Angel 🧚🏻)
संवेदना की बाती
संवेदना की बाती
Ritu Asooja
चुनाव के खेल
चुनाव के खेल
डॉ विजय कुमार कन्नौजे
दिल के एहसास में जब कोई कमी रहती है
दिल के एहसास में जब कोई कमी रहती है
Dr fauzia Naseem shad
आयु घटाता है धूम्रपान
आयु घटाता है धूम्रपान
Santosh kumar Miri
यह जिंदगी मेरी है लेकिन..
यह जिंदगी मेरी है लेकिन..
Suryakant Dwivedi
ये उम्र के निशाँ नहीं दर्द की लकीरें हैं
ये उम्र के निशाँ नहीं दर्द की लकीरें हैं
Atul "Krishn"
Loading...