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4 Aug 2023 · 6 min read

*तुलसी के राम : ईश्वर के सगुण-साकार अवतार*

तुलसी के राम : ईश्वर के सगुण-साकार अवतार
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लेखक : रवि प्रकाश बाजार सर्राफा, रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 99976 15451
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रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचंद्र जी को केवल दशरथ-पुत्र के रूप में नहीं देखा, उन्होंने उनके व्यक्तित्व में परमात्मा के दर्शन किए। यह विचार कि ईश्वर संसार में धर्म की स्थापना के लिए समय-समय पर स्वयं को प्रकट करते हैं, इसी के आधार पर तुलसीदास जी ने रामचंद्र जी को ईश्वर के अवतार की संज्ञा दी। रामचंद्र जी का जन्म दिव्य था। वह चार भुजाधारी के रूप में प्रकट हुए थे । तत्पश्चात उन्होंने माता कौशल्या के कहने पर अपना सहज बालक का स्वरूप प्रकट किया था।
रामचंद्र जी ईश्वर के अवतार हैं, इस बात की पुष्टि रामचरितमानस में अनेक स्थानों पर हमें देखने को मिलती है। एक स्थान पर कथा में शंकर जी ने सती को समझाया कि सर्वव्यापक राम ही दशरथ- पुत्र राम हैं। उन्होंने कहा:-

सोइ रामु व्यापक ब्रह्म भवन, निकाय पति माया धनी। अवतरेउ अपने भगत-हित, निजतंत्र नित रघुकुलमनी
(बालकांड छंद दोहा वर्ग 50)
तुलसी ने निर्गुण और सगुण में भेद को अमान्य कर दिया है। उनका कहना है कि जो निर्गुण, निराकार, अव्यक्त और अजन्मा परमात्मा है; वही भक्तों के प्रेमवश सगुण रूप में अवतार लेता है:-

सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध वेदा।। अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई।।
(बालकांडचौपाई संख्या 115)
तुलसी ने सर्वव्यापी परमात्मा को ही दशरथ-पुत्र राम के रूप में भक्तों के हित में अवतार लिया बताया है। रामचरितमानस में तुलसी लिखते हैं :-

जेहि इमि गावहिं वेद बुध, जाहि धरहिं मुनि ध्यान। सोइ दशरथ सुत भगत हित कौशलपति भगवान ।।
(बालकांड दोहा संख्या 118)
परमात्मा तुलसी के अनुसार सर्वव्यापक, निर्गुण, निराकार और अजन्मे होते हैं। लेकिन प्रेम के वशीभूत होकर वह भक्त कौशल्या की गोद में खेल रहे हैं। इस दृश्य को चित्रित करने के लिए तुलसी ने लिखा है:-

व्यापक ब्रह्म निरंजन, निर्गुण विगत विनोद। सो अज प्रेम भगति बस, कौशल्या के गोद।।
(बालकांड दोहा संख्या 198)

भगवान राम मनुष्य के रूप में जन्म लेकर मनुष्य का व्यवहार कर रहे हैं। अर्थात पक्षी पशु और भौंरों से भी पूछ रहे हैं कि क्या तुमने मृगनयनी सीता को देखा है? इस प्रकार से जब तुलसी ने भगवान राम को देखा, तो लिख दिया :-

एहि विधि खोजत बिलपत स्वामी। मनहु महा विरही अति कामी।। पूर्ण काम राम सुख राशी। मनुज चरित कर अज अविनाशी।।
(अरण्यकांड चौपाई संख्या 29)

अजन्मे और अविनाशी मनुष्य के रूप में जब राम ने जन्म ले लिया, तब वह एक विरह से पीड़ित साधारण मनुष्य की तरह अपनी पत्नी के वियोग में बिलख रहे हैं। राम की यही स्वाभाविकता तो रामकथा को प्राणवान बना देती है। अगर राम केवल चमत्कार का आश्रय लेते, केवल मायावी शक्तियों से ही लक्ष्य की ओर आगे बढ़ते; तब मनुष्य रूप धारण करने की उपादेयता ही नहीं रहती।
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निर्लोंभी व्यक्तित्व

राम ईश्वर के अवतार यों ही नहीं हैं ।उनका व्यक्तित्व और चरित्र निष्कपट और निष्कलंक है। नि:स्वार्थ वृत्ति उनमें कूट-कूट कर भरी हुई है। जीवन में लोभ का परित्याग कर सहज सरल सत्य का आश्रय लेना ही उनके जीवन की एकमात्र प्रवृत्ति है । तभी तो वह जिस अनासक्त भाव से अयोध्या के राजपद को स्वीकार कर रहे थे, उसी सहजता से राजपद ठुकरा कर वन में जाने के लिए तत्पर हो जाते हैं।
समूची अयोध्या राम के वन गमन के समाचार को सुनकर दुखी हो रही है। जितनी स्त्रियॉं थीं, सिवाय मंथरा के सब ने कैकई को एक ही बात समझाई (अयोध्या कांड दोहा संख्या 49 ) :-
नाहिन रामू राज के भूखे । धर्म धुरीन विषय रस रूखे।। गुरु गृह बसहु राम तजि गेहू। नृप सन अब बर दूसर लेहू ।।
अर्थात राम राजपद के भूखे नहीं हैं। धर्म को धारण करने वाले विषयों के रस से रूखे हैं। यह न समझो कि वह वन नहीं गए तो भरत के राज्य में बाधा डालेंगे। फिर भी अगर ऐसा समझती हो तो यह वर ले लो कि राम घर छोड़कर गुरु के घर में रहें।

यह केवल राम ही हैं जो राजपद छोड़ने से प्रसन्न हैं। यह केवल राम ही हैं जिन्हें वन में चौदह वर्ष बिताने की आज्ञा से हार्दिक प्रसन्नता हो रही है। तुलसीदास लिखते हैं:-

नव गयंदु रघुवीर मन, राज अलान समान। छूट जानि वन गवनु सुनि, उर अनंदु अधिकान।।
(अयोध्या कांड दोहा 51)
अर्थात नए-नए गयंद अर्थात हाथी को जो पकड़ा गया होता है, उसे बेड़ियाँ पहनने से जो कष्ट होता है वह कष्ट राम को राज्याभिषेक होने से हो रहा था और अब वन जाने की स्थिति से अत्यंत स्वतंत्रता के साथ सुख की अनुभूति हो रही है।
तुलसीदास जी लिखते हैं:-

करत चरित धरि मनुज तन, सुनत मिटहिं जग जाल ।।
(अयोध्या कांड दोहा 93)
अर्थात भगवान राम मनुष्य का तन धारण करके जो चरित अर्थात लीलाएं करते हैं, उसके सुनने से ही जग के जंजाल मिट जाते हैं। तात्पर्य यह है कि भगवान राम ने जो मनुष्य का शरीर धारण किया तथा उसके माध्यम से जो राग, द्वेष, लोभ व मोह से परे रहकर जीवन बिताने का जो आदर्श उपस्थित किया; उन पद-चिन्हों पर चलने से ही व्यक्ति जगत से पार पा सकता है।
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निर्मल मन आवश्यक

भगवान को तो अंदर और बाहर से निर्मल और पवित्र जन ही सुहाते हैं। छल-कपट उन्हें पसंद नहीं है। इसलिए अपने भक्तों से वह निश्छल वृत्ति जीवन में अपनाने की आशा करते हैं। जो लोग संसार में छल-कपट से रहित रहकर जीवन बिताते हैं, केवल वही भगवान को प्राप्त कर सकते हैं। जब मनुष्य के रूप में भगवान ने जन्म लिया, तब उन्होंने इसी बात को अपने मुख से दोहराया है।
राम ने एक ही बात कही:-

निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।
(सुंदरकांड चौपाई संख्या 43)

अयोध्या कांड चौपाई संख्या 41 में भगवान राम ने उस संतान की श्रेष्ठता को वर्णित किया है जो अपने माता और पिता के वचनों का पालन करने वाला हो। इस प्रकार माता और पिता की भक्ति ही संसार में सर्वश्रेष्ठ है, इस वृत्ति का प्रतिपादन भगवान राम कर रहे हैं।
सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु वचन अनुरागी।। तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा।।
अर्थात रामचंद्र जी कहते हैं कि अपने माता और पिता के वचनों का पालन करने वाला संसार में बड़ा भाग्यशाली होता है। जो माता-पिता को संतुष्ट कर दे, ऐसा पुत्र सारे संसार में अत्यंत दुर्लभ है।
राम ने एक पुत्र के सद्गुणों की भी इन शब्दों में व्याख्या की। उन्होंने दशरथ जी से कहा :-

धन्य जनमु जगतीतल तासू। पितहि प्रमोद चरित सुनि जासु।। चारि पदारथ करतल ताकें। प्रिय पितु मातु प्राण सम जाकें ।।
(अयोध्या कांड दोहा संख्या 45)
हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने इसकी टीका इस प्रकार लिखी है: “इस धरती पर उसका जन्म धन्य है जिसका चरित्र सुनकर पिता को परमानंद हो। जिसको माता-पिता प्राणों के समान प्रिय हैं; धर्म अर्थ काम और मोक्ष उसके करतल अर्थात मुट्ठी में रहते हैं।”
राम उपरोक्त सुपुत्र की परिभाषा पर पूरी तरह खरे उतरते हैं। उन्हें कोई निजी स्वार्थ नहीं है। वह व्यक्तिगत प्रसन्नता और दुख से परे हैं। ऐसा व्यक्ति देहधारी परमात्मा नहीं तो भला और कौन हो सकता है ?
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भगवान राम का विनयशील स्वभाव

अपनी सहज विनयशीलता से परिस्थितियों को अनुकूल बनाने की कला तो राम में है ही, साथ ही सब के प्रति आदर का भाव भी इस प्रवृत्ति में हमें देखने को मिल जाता है। समाज में राम के समान विनय भाव अगर सब जगह व्याप्त हो जाए तो अधिकांश विवाद तो शुरुआत में ही शांत हो जाएंगे। उदाहरण के लिए एक प्रसंग इस प्रकार है:
रामचरितमानस की कथा में सीता स्वयंवर के मध्य भगवान परशुराम अत्यंत क्रोध की मुद्रा में हैं। सब डर रहे हैं। लेकिन ऐसे में भी भगवान राम ने अपने हृदय को सदैव की भाँति हर्ष और विषाद से परे ही रखा है। तुलसी लिखते हैं:-

हृदय न हरषु विषादु कछु, बोले श्री रघुवीर
(बालकांड दोहा संख्या 270)
अर्थात भगवान परशुराम से भगवान राम ने हृदय को हर्ष और विषाद से परे रखते हुए अपनी बात कही। भगवान राम के स्वभाव में स्वाभाविक विनय मिलता है। इसका परिचय पग-पग पर उनके आचरण से चलता है। जैसे ही भगवान परशुराम क्रुद्ध हुए, रामचंद्र जी ने उनसे यह कहकर अपनी बात शुरू की कि जिस ने धनुष तोड़ा है, वह आपका दास ही तो है। तुलसी लिखते हैं:-

नाथ शंभु धनु भंजनिहारा । होइहि केउ एक दास तुम्हारा।।
(बालकांड दोहा वर्ग संख्या 270)
इस प्रकार भगवान के अवतार के रूप में राम का जन्म एक अदभुत आश्चर्यजनक और विलक्षण घटना है। ईश्वर कभी-कभी संसार में दुष्टों के संहार और सज्जनों के हित के लिए अवतार लेते हैं। तुलसीदास जी ने राम के चरित्र में ईश्वर के अवतार रूप के उचित ही दर्शन किए और एक श्रेष्ठ मनुष्य के रूप में उनके आचरण और स्वभाव को महाकाव्य के शब्दों में पिरोकर जन-जन के लिए प्रेरणा के स्रोत के रूप में सदैव के लिए स्थापित कर दिया।
(साहित्पीयडिया पब्लिशिंग,नोएडा द्वारा प्रकाशित एवं रवि प्रकाश द्वारा लिखित पुस्तक “रामचरितमानस दर्शन” प्रकाशन वर्ष 2023 के आधार पर यह लेख तैयार किया गया है।)

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