रिक्शेवाला
उस रात कड़ाके की सर्दी से ,डर कर ही शायद,
महानगर ,धुंध की रज़ाई में दुबका पड़ा था,
लोग बंद कमरों में लिहाफ़ों में लिपटे या अंगीठियों को घेरे,
कमरों में बैठे थे।
कहीं बतकहियां मूँगफली सी चटकतीं, तो नानी की कहानी कहीं-
मीठी -मीठी रेवड़ियों सी -बच्चों में बंटती थीं।
इन सबसे परे वो एक रिक्शेवाला,
फटी हुई कथरी को भ्रम सा लपेटे,
सड़क के किनारे अपनी रिक्शा खड़ी करके,
मंदिर के बाहर ही हाथ जोड़े खड़ा था।
उन बंद आँखों और जुड़े हुए हाथों में –
ना जाने भक्ति थी या कोई सी विवशता थी जो,
सुबह के होने तक टल नहीं सकती थी।
किसी राह चलते ने हल्का सा कटाक्ष किया –
जाओ भाई घर जाओ -कम से कम इस वक्त तो भगवन को सोने दो।
उत्तर में निराशा का धीमा सा स्वर आया –
क्या कहूं भाई -मेरे भगवन तो लगता है, बरसों से सोए हैं,
घर ही की चाह में, मकानों के जंगल में –
दिन भर भटकते हम,
घर की तलाश में –
जंगल में खोए हैं।