Sahityapedia
Sign in
Home
Your Posts
QuoteWriter
Account
15 May 2023 · 5 min read

*संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ: दैनिक समीक्षा*

संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ: दैनिक समीक्षा
दिनांक 15 मई 2023 सोमवार प्रातः 10:00 से 11:00 तक
उत्तरकांड दोहा संख्या 117 से दोहा संख्या 130 तक तदुपरांत श्लोक संख्या एक एवं दो तथा अंत में श्री रामायण जी की आरती सब ने मिलकर गाई। रवि प्रकाश ने दस मिनट रामचरितमानस के संबंध में कुछ विचार रखे।
————————————–
ठीक 11:00 बजे अंत में श्री रामायण जी की आरती के साथ कार्यक्रम संपन्न हुआ।
————————————–
आज के पाठ में पूर्व प्रधानाचार्य डॉ अब्दुल रऊफ, निशांत रस्तोगी एवं उनकी माता जी श्रीमती उषा रानी जी, पंकज गर्ग, शिवकुमार शर्मा, सूरज शर्मा, विवेक गुप्ता, श्रीमती शशि गुप्ता, श्रीमती नीलम गुप्ता, श्रीमती साधना गुप्ता तथा श्रीमती मंजुल रानी उपस्थित रहे।

कथा-सार: कागभुशुंडि जी एवं गरुड़ जी के मध्य संवाद

कथा-क्रम

सोहम् का ज्ञान उत्तरकांड के अंतिम प्रष्ठों में कागभुशुंडि जी महाराज और श्री गरुड़ जी के संवाद से प्राप्त होता है:-
सोहमस्मि इति वृत्ति अखंडा। दीपशिखा सोइ परम प्रचंडा।। आतम अनुभव सुख सुप्रकाशा। तब भव मूल भेद भ्रम नाशा।। (उत्तरकांड चौपाई संख्या 117)
अर्थात सोहम् अथवा वह परमात्मा में ही हूॅं, इस प्रकार की अखंड वृत्ति दीपशिखा के समान जब प्रचंड होती है और आत्मा का अनुभव होने लगता है तब सुख का प्रकाश भीतर फैलता है तथा भेद मूलक वृत्ति जो कि आत्मा और परमात्मा के अलग-अलग मानने के कारण बनी हुई है; वह समाप्त हो जाती है। अध्यात्म का सर्वोपरि ज्ञान यही है कि जो वह है, वही मैं हूॅं। इसी को तुलसीदास जी ने सोहमस्मि कहकर चौपाई में कागभुसुंडि जी के माध्यम से गरुड़ जी को प्रदान किया है।

सोहम के भाव को ध्यान-साधना के द्वारा अनुभव किया तो जा सकता है लेकिन इस मार्ग में सबसे बड़ी बाधा बार-बार सांसारिक प्रलोभनों के आकर्षण की रहती है। सांसारिक प्रलोभनों से व्यक्ति एक बार को ऊपर उठ भी जाए, तो ईश्वर प्रदत्त सिद्धियॉं एक बड़ी बाधा के रूप में सामने आ जाती हैं। सर्वप्रथम तो सिद्धियां प्राप्त ही नहीं होती हैं। लेकिन अगर वे प्राप्त हो भी जाएं, तो व्यक्ति उसके बाद सोहम् के साधना-पथ पर आगे बढ़ने के स्थान पर सिद्धियों के चमत्कार प्रदर्शन में उलझ जाता है और फिर उसकी उन्नति रुक जाती है।
इसलिए काग भुसुंडि जी गरुड़ जी से कहते हैं :-
हरि माया अति दुस्तर। तरी न जाइ विहगेश।। (उत्तरकांड दोहा संख्या 118)
अर्थात हरि की माया अत्यंत कठिन होती है। इसके पार हे गरुड़ जी ! जाना बहुत कठिन होता है।

काग भुसुंडि जी गरुड़ जी से कहते हैं कि भगवान राम को प्राप्त करने का सबसे सरल उपाय यह है कि भगवान के जो भक्त और दास हैं, उनका संग करो। ऐसा करने से भगवान राम की भक्ति सुलभ हो जाती है:-
राम ते अधिक राम कर दासा।। (उत्तरकांड चौपाई संख्या 119)

गरुड़ जी ने अपने संवाद में काग भुसुंडि जी से सात प्रश्न पूछे:-
1) सबसे दुर्लभ शरीर कौन सा है?
2 ) सबसे बड़ा दुख क्या है ?
3 ) सबसे बड़ा सुख क्या है ?
4 )संत का मर्म क्या है ?
5 )असंत का मर्म क्या है ?
6 )महान पुण्य किसे कहते हैं ?
7 )भयंकर पाप क्या है ?
काग भुसुंडि जी ने कहा कि मनुष्य के शरीर के समान कोई देह नहीं है, क्योंकि इसी से मोक्ष प्राप्त हो सकता है।
दरिद्रता के समान कोई दुख नहीं है ।
संतो से मिलन के समान संसार में कोई सुख नहीं है ।
संत वह हैं जो मन, वचन और काया से परोपकार में रत रहते हैं।
दुष्ट वह हैं जो सदैव दूसरों को दुख पहुंचाने में लगे रहते हैं।
सबसे बड़ा पुण्य अहिंसा है और सबसे बड़ा पाप दूसरों की निंदा करना है:-
पर-उपकार वचन मन काया। संत सहज स्वभाव खगराया।। (उत्तरकांड चौपाई संख्या 120)

गरुड़ जी ने काग भुसुंडि जी के ज्ञान उपदेशों को अत्यंत हितकारी मानते हुए उनका बार-बार धन्यवाद दिया और कहा कि लोग कहते हैं कि संतों का ह्रदय नवनीत अर्थात मक्खन के समान होता है। लेकिन मैं तो यही समझता हूॅं कि मक्खन गर्मी से पिघलता है, जबकि संतों का हृदय तो दूसरों के दुख को देखते ही पिघल जाता है । अतः उनकी तुलना नवनीत से भला कैसे की जा सकती है ? तात्पर्य है कि संत अत्यंत कोमल हृदय के स्वामी होते हैं । उनका मिलना सब प्रकार से दुर्लभ पुण्यों का परिणाम ही कहा जा सकता है।

इस प्रकार काग भुसुंडि जी और गरुड़ जी का संवाद भगवान शंकर ने पार्वती जी को सुनाया । तुलसीदास जी कहते हैं कि इस प्रकार भगवान शंकर ने जो रामकथा पार्वती जी को सुनाई, वह विषाद का नाश करने वाली और सुख का सृजन करने वाली है :-
यह शुभ शंभु उमा संवादा। सुख संपादन समन विषादा।। (उत्तरकांड चौपाई संख्या 129)

एक रहस्य की बात तुलसीदास जी अब यह बताते हैं कि भगवान शंकर ने एक सुकवि के रूप में सबसे पहले जिस रामायण की रचना की थी, मैंने यह रामचरितमानस के रूप में उसी को सृजित किया है। अर्थात तुलसी के रामचरितमानस की कथा का मूल स्रोत वह है जिसे भगवान शंकर ने पार्वती जी को सुनाया।

अंत में तुलसीदास जी भगवान राम की इस दोहे के साथ वंदना करते हैं :-
मो सम दीन न दीन हित, तुम्ह समान रघुवीर। अस विचारि रघुवंश मणि, हरहु विषम भव भीर।। (उत्तरकांड दोहा संख्या 130)
हनुमान प्रसाद पोद्दार जी इस दोहे की टीका इस प्रकार लिखते हैं :”हे श्री रघुवीर! मेरे समान कोई दीन नहीं है और आप के समान कोई दीनों का हित करने वाला नहीं है। ऐसा विचार कर हे रघुवंश मणि! मेरे जन्म-मरण के भयानक दुख का हरण कर लीजिए।”
वास्तव में राम कथा एक ऐसी सरिता है जिसने इसमें स्नान किया, वह तर जाता है। जिसने इसके जल का पान कर लिया, उसे मुक्ति मिल जाती है। जिसने इसके तट पर बैठकर इसकी सौंदर्य-छवि को निहार लिया, उसके समस्त क्लेश दूर हो जाते हैं । अधिक क्या कहा जाए, रामकथा के तो पग-पग पर तथा प्रत्येक मोड़ पर सुंदर सदुपदेश इस प्रकार सहज उपलब्ध होते रहते हैं कि मनुष्य का जीवन मंगलमय तथा कुटिलता से रहित होकर जीवनमुक्त अवश्य ही हो जाना चाहिए। हमारा सौभाग्य रहा कि हमें तुलसी के रामचरितमानस का प्रथम पृष्ठ से अंतिम पृष्ठ तक पाठ करने का सौभाग्य मिला। गोस्वामी तुलसीदास जी के रामचरितमानस को, टीकाकार हनुमान प्रसाद पोद्दार जी को और प्रकाशक गीता प्रेस गोरखपुर को हृदय से बारंबार धन्यवाद।
—————————————-
समीक्षक : रवि प्रकाश (प्रबंधक)
राजकली देवी शैक्षिक पुस्तकालय (टैगोर स्कूल), पीपल टोला, निकट मिस्टन गंज, रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 99976 15451

Loading...