Sahityapedia
Sign in
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
20 Apr 2023 · 10 min read

*संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ/ दैनिक रिपोर्ट*

संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ/ दैनिक समीक्षा
20 अप्रैल 2023 बृहस्पतिवार प्रातः 10:00 बजे से 11:00 बजे तक (रविवार अवकाश)
आज अयोध्याकांड दोहा संख्या 51 से दोहा संख्या 84 तक का पाठ हुआ ।
राम-लक्ष्मण-सीता का वन-गमन

पाठ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के रामपुर में संस्थापक स्वर्गीय श्री बृजराज शरण गुप्त ‘वकील साहब’ की पुत्रवधू श्रीमती शशि गुप्ता की विशेष सहभागिता रही। श्रीमती मंजुल रानी भी उपस्थित रहीं।

आज की कथा में राम ने अपनी माता कौशल्या से वन जाने की अनुमति मॉंगी। सीता और लक्ष्मण को साथ लिया तथा संपूर्ण अयोध्या को उदास छोड़कर वन की ओर चल दिए। राजा दशरथ ने मंत्री सुमंत को रथ लेकर उनके पास भेजा, ताकि किसी तरह थोड़ा वन में घुमा-फिरा कर राम को वापस लाया जा सके अथवा अधिक नहीं तो कम से कम सीता जी को तो अयोध्या वापस लाया जाए। किंतु राम, लक्ष्मण और सीता वन में चौदह वर्ष बिताने के लिए अडिग संकल्पबद्ध रहे।
यह केवल राम ही हैं जो राजपद छोड़ने से प्रसन्न हैं। यह केवल राम ही हैं जिन्हें वन में चौदह वर्ष बिताने की आज्ञा से हार्दिक प्रसन्नता हो रही है। तुलसीदास लिखते हैं:-
नव गयंदु रघुवीर मन, राज अलान समान। छूट जानि बन गवनु सुनि, उर अनंदु अधिकान।। (दोहा 51)
अर्थात नए-नए गयंद अर्थात हाथी को जो पकड़ा गया होता है, उसे बेड़ियॉं पहनने से जो कष्ट होता है वह कष्ट राम को राज्याभिषेक होने से हो रहा था और अब वन जाने की स्थिति से अत्यंत स्वतंत्रता के साथ सुख की अनुभूति हो रही है।
माता कौशल्या को राम के वनवास जाने का कुछ भी पता नहीं था। राम ने उन्हें अपने वनवास का समाचार बताया और कहा:-
आयसु देहि मुदित मन माता। जेहिं मुद मंगल कानन जाता।। (दोहा संख्या 52)
अर्थात हे माता ! अब मुदित मन से मुझे आज्ञा दें, जिससे कि कानन अर्थात वन में सब मुदित मंगल हो। यहां हम राम के सुविचारित सुनिश्चित निर्णय को देख पा रहे हैं कि वह हॅंसते हुए वन जाना चाहते हैं। उनके हृदय में लेश मात्र भी इस बात का खेद नहीं है कि पिता ने उन्हें वनवास दे दिया है।
दूसरी ओर यह समाचार कौशल्या को बाण के समान हृदय में लगा:-
वचन विनीत मधुर रघुवर के। सर सम लगे मातु उर करके।। (दोहा 53)
मॉं के उर अर्थात हृदय में राम के वचन सर अर्थात बाण के समान लगे। लेकिन कौशल्या उन महिलाओं में से नहीं थीं, जो केवल विलाप करती हों अथवा अपने पुत्र मोह में ही फंसी हुई हों। वह धर्म और कर्तव्य की बातों को जानती हैं। असमंजस में अवश्य फंस जाती हैं। सोचती हैं:-
राखि न सकइ न कहि सक जाहू। दउहूॅं भॉंति उर दारुन दाहू।। (दोहा 54)
अर्थात न रहने को कह सकती हूं, न जाने को कह सकती हूं । दोनों प्रकार से उर अर्थात हृदय में दारुण दुख है।
लेकिन अंत में कौशल्या ने अपने कर्तव्य पथ को सर्वोपरि मानते हुए राम के कर्तव्य निर्वहन में बाधक बनने के स्थान पर साधक बनना पसंद किया तथा स्पष्ट रूप से राम से कह डाला। तुलसी लिखते हैं कि कौशल्या कहती हैं :-
तात जाऊं बलि कीन्हेहु नीका। पितु आयसु सब धर्मक टीका।। (दोहा 54)
अर्थात हे पुत्र तुमने नीका अर्थात बहुत अच्छा किया। अब पिता की आज्ञा का पालन करो क्योंकि यही धर्मों का महाधर्म है।
कौशल्या एक ऐसी मां है जो अत्यंत कठोर हृदय को धारण करते हुए निम्नलिखित बात कह सकती हैं :-
राजु देन कहि दीन्हु बनु, मोहि न सो दुख लेसु। तुम्ह बिन भरतहि भूपतिहि, प्रजहि प्रचंड कलेसु।। (दोहा 55)
अर्थात कौशल्या कहती हैं कि मुझे इस बात का लेश मात्र भी दुख नहीं है कि राजा ने तुमको वन जाने के लिए कह दिया है। दुख तो इस बात का है कि तुम्हारे वन जाने से भरत को, महाराज दशरथ को और प्रजा जनों को अत्यंत दुख पहुंचेगा ।
इतना ही नहीं, कौशल्या हर परिस्थिति में राम को वन भेजने में अपनी सहायक भूमिका ही निर्वहन करना चाहती हैं । उन्होंने राम से यहां तक कह दिया कि मैं तुम्हारे साथ वन जाने के लिए भी तुमसे नहीं कहूंगी। क्योंकि कहीं यह कथन भी तुम्हें ऐसा न लगने लगे कि मैं तुम्हें वन जाने से रोक रही हूं।
जौं सुत कहौं संग मोहि लेहूं। तुम्हरे हृदय होइ संदेहू।। (दोहा 55)
राम के वन जाने के समाचार से भला कौन दुखी नहीं होता। सीता जी को तो विशेष दुख हुआ। सुनकर उनकी आंखों से जल बहने लगा ।तुलसी लिखते हैं :-
मंजु विलोचन मोचति बारी (दोहा 57)
कौशल्या ने कहा कि सीता जी ने तो कभी पलंग से नीचे धरती पर पैर भी नहीं रखा है । वह सीता जी के संबंध में कहती हैं :-
पलॅंग पीठ तजि गोद हिंडोला। सियॅं न दीन्ह पगु अवनि कठोरा।। दोहा 58
अर्थात सीता जी ने तो पलंग, गोद और हिंडोले को छोड़कर अवनि कठोरा अर्थात कठोर धरती पर कभी पैर तक नहीं रखा है अर्थात वह भीषण वन में विचरण कैसे कर पाएंगी?
भगवान राम ने भी सीता के सम्मुख वन की कठिनाइयों को भली प्रकार से रखा ताकि भावुकता वश सीता 14 वर्षों के लिए वन गमन का निर्णय न लें। बल्कि वन की कठिनता को पहले भली-भांति समझ लें। राम ने सीता से कहा :-
भूमि शयन वल्कल वसन, असनु कंद फल मूल। ते कि सदा सब दिन मिलहिं, सबुइ समय अनुकूल।। (दोहा 62)
अर्थात भूमि पर शयन करना होगा, पेड़ों की छाल के वस्त्र पहनना होगा, कंद मूल फल खाना पड़ेगा और यह सब भी हमेशा नहीं मिलेगा बल्कि समय के अनुकूल ही मिल पाएगा।
राम ने सीता से एक बात और कहीं जो ध्यान देने योग्य है। राम कहते हैं:-
हंसगवनि तुम नहिं बन जोगू (दोहा 62)
इसमें राम ने वास्तव में सीता को अपने साथ लेकर जाने में इस आधार पर असमर्थता व्यक्त की कि तुम तो हंस के समान गमन करने वाली हो, वन के योग्य कहां हो। अगर मैं तुम्हें अपने साथ वन ले जाता हूं तब मुझे अपयश ही मिलेगा अर्थात तुम्हें वन का कष्ट भोगने के लिए मैं अपराधी माना जाऊंगा।
किंतु वाह री सीता! सीता जी ने एक पत्नी के रूप में सुख और दुख सब प्रकार के दिनों में पति का साथ देने की शपथ खाई हुई है। उन्हें भली-भांति पता है कि पत्नी का सुख पति के साथ ही होता है। परिस्थितियां चाहे जैसी हों। पति का साथ जीवन को सुंदर बना देता है। इसलिए सीता जी कहती हैं कि आपके बिना तो मेरे लिए स्वर्ग भी नर्क के समान है।
सीता जी एक बार फिर राम से यही कहती हैं कि तुम्हारे बगैर मुझे संसार में कहीं भी सुख नहीं मिल सकता । तुलसी लिखते हैं :-
प्राणनाथ तुम्ह बिनु जग माहीं मो कहुं सुखद कतहुं कछु नाहीं
स्त्री के लिए पुरुषों के बिना संसार व्यर्थ होता है। सीता जी तुलना देते हुए कहती हैं कि जिस प्रकार आत्मा के बिना शरीर और पानी के बिना नदी व्यर्थ है, ठीक उसी प्रकार पति के बिना पत्नी के जीवन का कोई अर्थ नहीं रह जाता ( दोहा 64)
सीता जी ने केवल तर्क वितर्क नहीं किया ।राम के साथ वन चलने का उनका निर्णय अविचल था । अंत में उन्होंने यहां तक कह दिया कि अगर 14 वर्ष तक मैं अयोध्या में रखी जाती हूं तो जीवित नहीं रह पाऊंगी ।तुलसी ने अवध और अवधि शब्द का प्रयोग करते हुए इस बात को बहुत सुंदर दोहे के माध्यम से चित्रित किया है। तुलसी लिखते हैं :-
राखिय अवध जो अवधि लगि, रहत न जानिहि प्राण। दीनबंधु सुंदर सुखद, शील सनेह निधान (दोहा 66)
अर्थात हे राम ! यदि 14 वर्ष की अवधि तक आप मुझे अवध में रखते हैं तो जान लीजिए कि प्राण नहीं रहेंगे ।
तदुपरांत सीता जी के रामचंद्र के साथ वन गमन का मार्ग प्रशस्त हो गया ।
लेकिन अभी लक्ष्मण को समझाना बाकी था । लक्ष्मण समझाए में नहीं आ रहे थे । तब राम ने उन्हें माता, पिता और गुरु के वचनों का पालन करने की शिक्षा दी और उसी को संसार में सबसे बड़ा धर्म बताया। उन्होंने यह भी कहा कि अगर तुम मेरे साथ वन में चले जाओगे तो अयोध्या की प्रजा की देखभाल कौन करेगा ? अगर प्रजा दुखी हो गई तो राजा को अवश्य ही नरक भोगना पड़ेगा । तुलसी लिखते हैं कि राम ने लक्ष्मण से कहा :-
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृप अवसि नरक अधिकारी।। (दोहा 70)
लेकिन लक्ष्मण जी राम के चरण पकड़ लिए और कहा कि आपकी बातें बहुत अच्छी हैं लेकिन मेरी पहुंच से वह परे हैं। मैं तो केवल आपको ही जानता हूं। तुलसी लिखते हैं कि लक्ष्मण ने राम से कहा :-
मोरें सबइ एक तुम स्वामी। दीनबंधु उर अंतर्यामी (दोहा 71)
अर्थात मेरे तो केवल आप ही एकमात्र स्वामी है। आप दीनबंधु हैं तथा मेरे उर अर्थात हृदय की बात को भलीभांति जानते हैं । तत्पश्चात राम ने लक्ष्मण से कहा कि अपनी मां से विदा मांग कर आओ।
सुमित्रा बहुत सुलझी हुई प्रवृत्ति की महिला सिद्ध हुईं। वह क्षण भर में ही यह समझ गईं कि कैकई ने क्या खेल खेला है। लेकिन उन्होंने लक्ष्मण को राम के साथ वन जाने के लिए एक बार भी नहीं रोका। बल्कि यही कहा कि *:-
तात तुम्हारि मातु वैदेही। पिता रामु सब भांति सनेही।। अवध तहां जहॅं राम निवासू। जौं पै सीय रामु वन जाहीं। अवध तुम्हार काजु कछु नाहीं।। (दोहा 73)
सुमित्रा ने तो लक्ष्मण से यहां तक कह दिया कि राम तुम्हारे पिता हैं और सीता तुम्हारी माता हैं। जहां राम निवास करते हैं, वहीं अवध है। अगर राम और सीता बन जा रहे हैं तो वास्तव में अयोध्या में अब तुम्हारा कोई काम नहीं है अर्थात तुम्हारी भूमिका राम और सीता के साथ वन जाने में ही तय है ।
भला ऐसी कौन मां होगी जो सुमित्रा के समान अपने पुत्र को 14 वर्ष के लिए हंसते हुए वन के लिए विदा करने को तैयार हो । जिसने अपने सीने पर पत्थर रखकर अपने पुत्र को विदा किया हो, जिसने कर्तव्य को लोभ और मोह के ऊपर सर्वोच्च प्रधानता दी हो, रामचरितमानस में ऐसा चरित्र केवल सुमित्रा का ही है । सुमित्रा ने अपने पुत्र लक्ष्मण से कहा कि इस संसार में वहीं युवती वास्तव में पुत्रवती कहलाने के योग्य है जिसका पुत्र भगवान राम का भक्त हो:-
पुत्रवती जुवती जग सोई। रघुपति भगतु जासु सुत होई (दोहा 74)
अगली चौपाई में सुमित्रा अपने पुत्र को सब प्रकार से नैतिक बल प्रदान करते हुए उनके वन गमन की आस्था और विश्वास को इन शब्दों में दृढ़ कर रही हैं। वह कहती हैं :-
तुम्हरेहि भाग रामु बन जाहीं। दूसर हेतु तात कछु नाहीं ।।
पुत्र और कोई दूसरा कारण नहीं है। यह तो बस तुम्हारे ही भाग्य से राम वन को जा रहे हैं।
राम का वनगमन मानव जाति के इतिहास की महानतम घटना है । पिता दुख में डूबे हुए हैं और पुत्र राम अपनी पत्नी और भाई के साथ प्रसन्न मुख के साथ वन जाने के लिए तैयार हैं। वह पिता से कहते हैं कि यह तो हर्ष का समय है । आप विषाद क्यों कर रहे हैं ? मुझे आशीर्वाद दीजिए :-
पितु असीस आयसु मोहि दीजै। हर्ष समय विसमय कत कीजै (दोहा 76)
कैकई का व्यवहार निष्ठुरता की पराकाष्ठा पर पहुंच चुका है । उसने केवल राम को वनवास ही नहीं दिया बल्कि जब वनवास के लिए चलने का समय आया तो कैकई ने अपने हाथों से राम के आगे मुनियों के पट अर्थात वस्त्र, भूषण अर्थात माला आदि आभूषण और भाजन अर्थात बर्तन कमंडल आदि रख दिए। कोई भी मां भले ही सौतेली ही क्यों न हो, लेकिन खुद अपने हाथ से इस कार्य को करने में संकोच अवश्य करेंगी। कैकई ने संकोच की सारी सीमाओं का अतिक्रमण किया हुआ है:-
मुनि पट भूषण भाजन आनी (दोहा 78)
अर्थात कैकई ने मुनियों के पट अर्थात वस्त्र, भूषण अर्थात माला आदि आभूषण तथा भाजन अर्थात बर्तन कमंडल आदि लाकर रख दिए।
इसके उपरांत तुलसी अंतिम अवस्था को लिख रहे हैं, जो राम के वन गमन की थी:-
रामु तुरत मुनि वेषु बनाई। चले जनक जननिहि सिर नाई (दोहा 78)
राम ने बिना विलंब किए मुनियों का भेष बनाया और माता पिता को प्रणाम करके चल दिए।
अयोध्या दुख के सागर में डूब गई ।सब लोग राम के साथ-साथ वन को जाने के लिए तैयार हो गए। पहले दिन वन की यात्रा में भगवान राम ने तमसा नदी के तट पर निवास किया। तुलसी ने इस पूरे दृश्य का चित्रण निम्नलिखित दोहे में किया है :-
बालक वृद्ध बिहाइ गृहॅं, लगे लोग सब साथ। तमसा तीर निवासु किय, प्रथम दिवस रघुनाथ।। (दोहा संख्या 84)
हनुमान प्रसाद पोद्दार जी इस दोहे की टीका इस प्रकार लिखते हैं:- “बच्चों और बड़ों को घरों में छोड़कर सब लोग साथ हो लिए। पहले दिन श्री रघुनाथ जी ने तमसा नदी के तीर पर निवास किया।”
भगवान राम के समझाने पर भी कोई अयोध्यावासी नवयुवक घर वापसी के लिए तैयार नहीं था। अंत में एक ही उपाय रह गया। जब रात चढ़ने लगी तब रामचंद्र जी ने मंत्री सुमंत्र से कहा। इस कहने में भी तुलसी लिखते हैं :-
राम सचिव सन कहेउ सप्रीती (दोहा 84)
अर्थात इस कथन में भी प्रेमपूर्वक कहने की बात निहित है। अर्थात वाणी की मधुरता राम का स्वाभाविक गुण था। किसी परिस्थिति में भी उन्होंने इस गुण को नहीं खोया। मंत्री सुमंत्र से कहा कि और किसी उपाय से बात बनने वाली नहीं है ,अब आप तेजी के साथ रथ को इस रात्रि के समय में आगे ले जाइए:-
खोज मारि रथ हांकहू ताता। आन उपाय बनिहि नहिं बाता।। (अयोध्याकांड दोहा संख्या 84)
संसार में किसी राजा से उसकी प्रजा का ऐसा प्रेम कहीं नहीं दिखता, जैसा राम के प्रति अयोध्या के प्रजा जनों का है। ऐसा भी कोई राजा इस संसार में न राम से पहले हुआ, न राम के बाद हुआ जो राजपद पाने से सुखी नहीं है और वन में जाने से दुखी नहीं होता। राम का ऐसा असाधारण चरित्र तुलसी के रामचरितमानस के माध्यम से हमको सुलभ हुआ, इसके लिए तुलसीदास जी का बारंबार अभिनंदन है।
———————————–
लेखक : रवि प्रकाश (प्रबंधक)
राजकली देवी शैक्षिक पुस्तकालय (टैगोर स्कूल), पीपल टोला, निकट मिस्टन गंज, रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 99976 15451

330 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
Books from Ravi Prakash
View all

You may also like these posts

मानवता के पथ पर
मानवता के पथ पर
ओम प्रकाश श्रीवास्तव
छाया युद्ध
छाया युद्ध
Otteri Selvakumar
रामायण में हनुमान जी को संजीवनी बुटी लाते देख
रामायण में हनुमान जी को संजीवनी बुटी लाते देख
शेखर सिंह
परिवर्तन ही वर्तमान चिरंतन
परिवर्तन ही वर्तमान चिरंतन
Mrs PUSHPA SHARMA {पुष्पा शर्मा अपराजिता}
हमें यह समझना होगा कि सब कुछ व्यक्तिपरक है। हर स्थिति को हल
हमें यह समझना होगा कि सब कुछ व्यक्तिपरक है। हर स्थिति को हल
ललकार भारद्वाज
पिरामिड -यथार्थ के रंग
पिरामिड -यथार्थ के रंग
sushil sarna
*पहचान*
*पहचान*
Pallavi Mishra
बस इस दिल में गढ़ी जो तिरी सूरत है,
बस इस दिल में गढ़ी जो तिरी सूरत है,
डॉ. शशांक शर्मा "रईस"
मैं गणित हूँ
मैं गणित हूँ
ज्योति
जै हनुमान
जै हनुमान
Seema Garg
जीवन पथ
जीवन पथ
डॉ राजेंद्र सिंह स्वच्छंद
दरवाजा खुला छोड़ा था की खुशियां आए ,खुशियां आई भी और साथ में
दरवाजा खुला छोड़ा था की खुशियां आए ,खुशियां आई भी और साथ में
अश्विनी (विप्र)
जो कमाता है वो अपने लिए नए वस्त्र नहीं ख़रीद पाता है
जो कमाता है वो अपने लिए नए वस्त्र नहीं ख़रीद पाता है
सोनम पुनीत दुबे "सौम्या"
अलमस्त रश्मियां
अलमस्त रश्मियां
विनोद वर्मा ‘दुर्गेश’
आस्था के प्रतीक है, राम
आस्था के प्रतीक है, राम
Bhupendra Rawat
प्रकृति का प्रकोप
प्रकृति का प्रकोप
Kanchan verma
जीवन में कई लोग मिलते हैं, कुछ साथ रह जाते हैं, कुछ का साथ छ
जीवन में कई लोग मिलते हैं, कुछ साथ रह जाते हैं, कुछ का साथ छ
पूर्वार्थ देव
सभी गम दर्द में मां सबको आंचल में छुपाती है।
सभी गम दर्द में मां सबको आंचल में छुपाती है।
सत्य कुमार प्रेमी
मेरा सुकून
मेरा सुकून
Umesh Kumar Sharma
पिला दिया
पिला दिया
Deepesh Dwivedi
यादों का बसेरा है
यादों का बसेरा है
Shriyansh Gupta
कुरुक्षेत्र की अंतिम ललकार भाग-2
कुरुक्षेत्र की अंतिम ललकार भाग-2
नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर
स्वर्गीय लक्ष्मी नारायण पांडेय निर्झर की पुस्तक 'सुरसरि गंगे
स्वर्गीय लक्ष्मी नारायण पांडेय निर्झर की पुस्तक 'सुरसरि गंगे
Ravi Prakash
मोहब्बत
मोहब्बत
Phool gufran
दो जीवन
दो जीवन
Rituraj shivem verma
ईसामसीह
ईसामसीह
Mamta Rani
गुरु गोविंद सिंह जयंती विशेष
गुरु गोविंद सिंह जयंती विशेष
विक्रम कुमार
सच ही सच
सच ही सच
Neeraj Kumar Agarwal
ख़ाली दिमाग़
ख़ाली दिमाग़
*प्रणय प्रभात*
ग़ज़ल
ग़ज़ल
Mahendra Narayan
Loading...