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26 Oct 2021 · 1 min read

सौंदर्यात्मक स्तुति प्रेयसी की

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खिले प्रभात सा रंग तुम्हारा
तन जैसे हो भीगा सावन।
तरुणाई की अरुणिम आभा
शीतल-शीतल,पावन-पावन।

संगमरमर ही ज्यों तराशकर
अंग तुम्हारा गढ़ गया सुन्दर।
लालिमा की आभा जैसे
करती स्रावित तेरा अंतर।

पंखुरियों की स्निग्ध राशि से
उसने तेरा रूप संवारा।
शीतल होता देह चूमकर
ताप से व्याकुल धूप बेचारा।

आँखों की नीली आभा में
डूब गए हैं सारे सागर।
ये बरौनीयां पालक झपकते
लगता है जैसे भरता हो गागर।

स्याह-स्याह यह केश-राशि है
बिखर जय मन बिखरे सारे।
क्या जानें क्यों कौंधे मन में
कुछ स्फुलिंग कुछ-कुछ तारे।

बिंदी तेरे भव्य ललाट पर शोभे।
शोभे सुन्दर ताजमहल सा।
चूम रहा औ इस कपाल को
कविता बनकर कवि विह्वल सा।

चन्दन वन सा गंध तुम्हारा।
हिय जैसे हो निर्झर-पावन।
अधरों पर मधु छलक रहा है।
और खड़ा यहाँ प्यासा सावन।
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