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27 Sep 2021 · 2 min read

करो विद्रोह भीषण गर्भ धरती का न सोने दो

करो विद्रोह भीषण गर्भ धरती का न सोने दो।
कफन को छीन लो इससे तथा नभ को न रोने दो।
उठेगा बुलबुला सागर का छाती और उबलेगा।
इसे अन्त्ज्य होने का जरा अहसास होने दो।
न पत्थर मार गिद्धों को यही मुर्दा उठाएगा।
कि मुर्दा कौन हममें हो गया यह जान लेने दो।
अभी तपता है सूरज ठंढ में गर्मी उबलने दो।
बरफ में जम गये मष्तिष्क को थोड़ा पिघलने दो।
कि बिखरे मौत जैसे मौन को आवाज बनने दो।
उठो भगवान को रोको जरा सृष्टि पिघलने दो।
पिघलती सृष्टि से मुझको मेरा निर्माण करने दो।
दलित सुनते हुए कानों के पर्दे फाड़ लेने दो।
इन हाथों को मेरे भी धर्म का हथियार चुनने दो।
भरा है आग ग्रन्थों में इसे हमतक पहुंचने दो।
जलाकर राख कर देने इसमें स्नान करने दो।
उठा निद्रा कुचल ज्वालामुखी सा तप्त मेरा मन।
नसों में व रगों में अब तरंगित सुप्त था यह तन।
कोई विद्रोह ही अब उल्लसित कर पाएगा यह मन।
बनाकर हादसा सा रख दिया अबतक था मेरा जन्म।
कि जल के धार में अंगार अब महसूस करने दो।
इसी जल से पतित इस देह को अग्नि-स्नान करने दो।
अग्नि के तेज पीकर कर्ण का अवतार लेने दो।
कर्णो अब किसी अर्जुन को न अपना प्राण लेने दो।
तुम्हीं ने पीटकर के लौह को हथियार कर डाला।
कहीं भाला कहीं रथ-चक्र तीर और तलवार कर डाला।
इसे अब चीर करके प्राण को उसमें समा डालो।
उठो साहस बनाकर इसको अब कर को थमा डालो।
इस सागर को उछालो आसमां को बिंध जाने दो।
तरलता त्याग अब तो क्रोध को कोई क्रोध आने दो।
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