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31 Jul 2021 · 1 min read

सांच को आंच होती नहीं था सुना

२१२ २१२ २१२ २१२
लोग बहके हुए से इधर दीखते।
लोग बहके हुए से उधर दीखते।।(१)

नित्य पहने हुए जो धवल वस्त्र हैं,
लोग उससे सदा ही इतर दीखते।।(२)

काम उनका सदा ही खिलाफत रहा,
आग में घी छिड़कते बशर दीखते।।(३)

काटते हैं जडों को मनुज ही यहां,
शाख से टूटते अब शजर दीखते।(४)

सांच को आंच होती नहीं था सुना,
झूठ को सांच करते हुनर दीखते।(५)

शब्द पहने हुए हैं मुलम्मा यहां
वो वही जो नहीं है मगर दीखते।(६)

एक मंजिल है सबकी मगर ऐ अटल,
इस जहां में अलग ही डगर दीखते।(७)

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