निडरता
हा हा चलो निडर बने,
पर ये क्या नि डर मे भी डर है।
यानी डर से ही जीवन है,
जीवन का हर पल डर है।
और यह डर अच्छा लगता है,
बाप का बेटे मे डर,
बेटी मे माँ का डर,
परिवार में बुजुर्गो का डर,
बुजुर्गो को समाज का डर,
समाज को संस्कारों का डर,
लेकिन संस्कार आज मिट रहे हैं,
जब से लोग निडर बन रहे हैं।
निडरता बहुत कुछ सिखलाती है।
बच्चो मे संस्कार मिटाती,
बड़ों को बे परवा बनाती,
रिश्तों को तार तार करवाती,
बुजर्गो को वर्धा आश्रम भिजवाती,
रोड पर नया नया खेल दिखाती,
समाज को लाचार करवाती हैं।
निडरता बहुत कुछ सिखलाती है।
इसलिये डरो, और खूब डरो
निडर बन कर बहुत कुछ खोया है,
निडर बन कर ही परिवार खोया है,
निडरता से दुर्योधन महाभारत चुनता है,
तब हमनें रिश्तों व संस्कार को खोया है।
अनिल चौबीसा चित्तौड़गढ़
9829246588