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16 Jul 2021 · 2 min read

कृषक दुर्दशा पर दोहे

01
गाल पोपले से दिखे, आँख अँधेरी खान।
फटे पुराने वस्त्र में, लिपटा मिले किसान।।

02
सूदखोर के सूद ने, ऐसा किया कमाल।
जिससे मात्र किसान के, हिस्से रही पुआल।।

03
गर्मी में सूखा पड़े, वर्षाऋतु में बाढ़।
नष्ट फसल हो शीत में, पड़ता धुन्ध प्रगाढ़।।

04
होरी धनिया से कहे, बैठ खेत की मेड़।
उगा नहीं सकते कृषक, आशाओं के पेड़।।

05
खेतों से गायब हुईं, कृषकों की टटकार।
ट्रैक्टर फोड़े कान को, कर अपनी फटकार।।

06
सरकारी कानून से, होकर अब हलकान।
खेती-बाड़ी बेचकर, ठलुआ हुआ किसान।

07
गुहा सरीखी आँख में, एक किरण की आस।
बिके हुए जो खेत हैं, शायद होते पास।।

08
उत्पादन मिलता नहीं, उस पर भारी कर्ज।
अक्सर कृषक समाज में, चलता है यह मर्ज।।

09
कृषकों पर होने लगी, राजनीति जिस रोज।
समझो उस दिन देश खुद, रहा पतन को खोज।।

10
फ़सल उगाता और है, फ़सल काटता और।
बदल गया है देश में, अब खेती का दौर।।

11
कांव-कांव करता नहीं, कौआ बैठ मुँडेर।
क्योंकि कृषक के खेत में, नहीं अन्न का ढेर।।

12
गाय-भैंस-बकरी सभी, थे जीवन के अंग।
निर्धनता में बेचकर, हुआ किसान अपंग।।

13
कोयल कूकेगी नहीं, अब किसान के खेत।
क्योंकि वृक्ष सब कट चुके, जामुन-आम समेत।।

14
खोज-खोज कर देख लें, पूरा हिंदुस्तान।
कहीं मिलेगा ही नहीं, सुख-सम्पन्न किसान।।

15
जो है सबके भूख की, चिंता में संलग्न।
उसका ही जीवन दिखे, आज यहाँ पर भग्न।।

16
चावल-गेहूँ-दाल से, भरी हुई गोदाम।
लेकिन सच्चाई यही, भूख-किसान बनाम।।

17
लहलह फ़सलें देखकर, देखे स्वप्न किसान।
लेकिन प्रकृति प्रकोप का, आ जाता तूफान।।

18
अपने सूखे खेत में, बोकर नित दृग-नीर।
पकी फ़सल की चाह में, कृषक पा रहा पीर।

19
खेतों में होगी नहीं, सोच सुहानी भोर।
नौ दो ग्यारह हो रहे, कृषक शहर की ओर।।

20
हल से हल होते रहे, संकट कई महंत।
किन्तु हलधरों की नहीं, हुई समस्या अंत।।

21
हल्कू अपने खेत में, करता भरसक काम।
किन्तु उचित मिलता नहीं, उसे कर्म परिणाम।।

22
पहले से शोषित कृषक, जाएँगे किस छोर।
राजनीति आने लगी, जब खेतों की ओर।।

23
दुष्कर खेती से कृषक, होकर अब मजबूर।
शनैः-शनैः होने लगा, और दीन मजदूर।।

24
मंडी में बिकती फ़सल, लागत से कम दाम।
कृषकों का नित इस तरह, शोषण होता आम।।

25
जब फ़सलों की पूर्णिमा, आनी होती यार।
ग्रसे फ़सल को राहु सम, विपदा-पारावार।।

26
पकने में होती फ़सल, खेतों में भरमार।
किन्तु प्राकृतिक कोप से, हो जाती बेकार।।

27
कृषकों को माना गया, खेती का पर्याय।
किन्तु सदा कमतर रहीं, इससे उनकी आय।।

28
कई योजनाएँ चलीं, नित कृषकों के नाम।
फलीभूत हो ना सके, पर उनके परिणाम।।

29
खाद-बीज-पानी सभी, देती है सरकार।
बदले में ले कृषक की, सारी पैदावार।।

30
कोई मुझसे पूछ ले, कृषकों की पहचान।
श्रमकण लिए ललाट पर, रहते नित्य किसान।।

31
दाता ही जब अन्न का, हो भूखा असहाय।
उन्नति हो उस देश की, ऐसा नहीं उपाय।।

32
हलधर के हालात पर, मौसम हुआ प्रगाढ़।
कभी सुखाता खेत तो, कभी बुलाता बाढ़।।

भाऊराव महंत
ग्राम बटरमारा, पोस्ट खारा
जिला बालाघाट, मध्यप्रदेश

Language: Hindi
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