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29 Oct 2020 · 1 min read

" सुनहरी यादें "

खुशी के दो पल थे वो
कहते थे हम बचपन जिसको
हमें ना कोई चिंता अपनी
हमारी फिकर थी अपनों को ,

मस्तमौला थी मैं तो
जहाँ गई वहीं खा पी आती
बिना बताये अम्माँ को
खाना खाने दो – चार को साथ ले आती ,

अम्माँ के बाहर जाते ही
इंतज़ार खतम होता मेरा
कैसे होम्योपैथी की गोलियाँ
चट कर जाती पूरा का पूरा ,

बिना पैसों को हाथ से छुये
मुझे नींद कहाँ आती थी
अम्माँ भी बांध पोटली पैसों की
मेरे सिरहाने रख जाती थीं ,

कपड़ों के भी नाम
त्योहारों पर रखे जाते
कोई विश्वकर्मा पूजा के
तो कोई दुर्गा पूजा के कहलाते ,

हावड़ा के ब्रिज से
जब कार मेरी गुज़रती
दिल मेरा धक – धक करता
खुश हो कर भी मैं हर पल डरती ,

दुर्गा पूजा पर फैक्टरी में
मिठाईयों के अंबार लगते
उनमें से बस करांची हलुआ ही
मेरे मन और मुँह को जचते ,

दंगों ने परिस्थितियां बदलीं
कलकत्ता से बनारस आये
लेकिन अपने खुशी के पल को
आज तलक नही भूल पाये ,

हम चाहे जितने बड़े हो जायें
या फिर हो जायें भूलक्कड़
अपनी खुशी के दो पल को
आज भी रखा है कस कर पकड़ ।

स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 29/10/2020 )

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