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29 Aug 2020 · 1 min read

ग़ज़ल- मज़दूर

बनाता वाहनों को है वो इक मज़दूर होता है
मगर पैदल ही चलता है बहुत मजबूर होता है

बनाता है किला वो ताज, मीनारें, पिरामिड भी
मगर गुमनाम रहता है कहाँ मशहूर होता है

दरो दीवार पर करता सदा जो पेंट औ पालिश
कि चेहरे से उसी के दूर अक्सर नूर होता है

बहुत होता है अपमानित बहुत सी तोहमतें मिलतीं
मगर सब पेट की खातिर उसे मंज़ूर होता है

गुजरती पीढ़ियां उसकी किराये के मकानों में
कि घर का ख़्वाब रोज़ाना ही चकनाचूर होता है

मुनासिब मिल नहीं पाते उसे पैसे पसीने के
यही सब सोच कर ‘आकाश’ वो रंजूर होता है

– आकाश महेशपुरी
दिनांक- 28/08/2020

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