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8 Aug 2020 · 1 min read

गरीब खाने पे

आईये आप को ले चलता हूँ मेरे गरीब खाने पे
जहाँ शायद मैं भी नहीं गया हूँ एक जमाने से ।
आजकल मेरा शरीर ही रहता है वहाँ सिमट कर
हालांकि गुजारी है मैंने बचपन उसी ठिकाने पे।
अब तो याद भी नहीं है मुझे कि मैं कब रोया था
जब पिता जी ने सुला दिया था मुझे सिरहाने में।
हाँ मगर भुला नहीं हूँ आज तलक भी वो प्यार
जिसे लूटाया करती थी माँ मुझको खिलाने में ।
उस अभाव ग्रस्त जीवन में भी हम कितने मस्त थे
मिलजुलकर रहते थे खुशी से,बैठते थे नौबतखाने ।
आज हर ऐशो-आराम के साथ वीबी-बच्चे हैं वहीं
बस कोई जाया नहीं करता वक्त अब बिताने में ।
-अजय प्रसाद

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