मुक्तक
सरकारी अनुदान पर टिकी हुई जो संस्थाएँ हैं
कम होती जा रही उन पर लोगों की आस्थाएँ हैं ।
बदहाल रख रखाव उदासीन ढुल मुल रवैया है
लापरवाह कर्मचारियों से ग्रसित ब्यवस्थाएँ हैं ।
-अजय प्रसाद
खोखले जज्बात से वो मेरा इस्तकबाल करते हैं
लबों पे खुशी मन द्वेषि ,अभिनय कमाल करते हैं ।
कहाँ दे पाते हैं जवाब हम उन बच्चों को कभी
हमसे ,जब हमारी इमानदारी पे सवाल करते है ।
-अजय प्रसाद
हो रहा है सत्ता, के लिये षडयंत्र
सड़ गया है इस कदर लोकतंत्र ।
सियासत में तिज़ारत हो जब हावी
बिक जाता है तब बेबस प्रजातंत्र ।
-अजय प्रसाद
ठोकरें हम को शाबाशी लगतीं हैं
गालियां भी सबकी दुआ सी लगतीं हैं ।
ठान लेता हूँ जब जोखिम उठाने की
मुश्किलें भी तब ज़रा सी लगतीं हैं ।
-अजय प्रसाद
मेरे साथ मुझमें रहता कौन है
जो हमेशा मुझे समझता गौण है ।
अक़्सर अपने बुजदिल ज़मीर पे
चीखता मै हूँ औ वो रहता मौन है ।
-अजय प्रसाद
एक दिन गुमनाम ही जहां से गुजर जाऊँगा
ज़िंदगी तेरी नज़रों से जब मैं उतर जाऊँगा ।
कुछ लोग आएंगे मेरी मैयत पे आसूँ बहाने
ओढ़ कफ़न अपने-वजूद से मुकर जाऊँगा ।
-अजय प्रसाद