Sahityapedia
Sign in
Home
Your Posts
QuoteWriter
Account
2 Nov 2019 · 1 min read

वक़्त हो तो रंग बारिश का समझना

घास के छप्पर को सम्भाली, माटी की मोटी दीवारें,
गीत झोपडी की वो गाती, बांस की हल्की पतली टाटी।
वक़्त हो तो झाँक कर तुम देखना झरोखों से,
फिर समझना जालिम हैं कितनी बारिश की ये बूंदे।

है एक घर, माँ बाप और बच्चे सात,
रोटी की खातिर वो पीसते हैं दिन रात।
वक़्त हो तो देखना छुपके तुम उनको छत से,
बिन बर्तन ही चूल्हा जल रहा और हो रही बरसात।

बिलखते बच्चों के आंसू छुप गए इन टपकती बूदों में,
भींगकर बिस्तर भी अब ऊँघने लगे बरसात की रातों में।
वक़्त हो तो सुनना कभी तुम गाथा दर्द की कलम से,
बारिश कहानी कह रही बच्चों के कानों में ।

कम थे वो नौ लोग देखो परिवार फिर बढ़ने लगा,
मेंढक झींगुरों के तान पर पतंगा सर पर नाचने लगा।
वक़्त हो तो जाना उनके घर कभी तुम,
परिवार भूँखा नंगा हैं मगर वो आँगन बड़ा दीवाना लगा।

आई आंधी कल रात फिर करने वसूली,
ले गई छप्पर उड़ा कर तूफानों की टोली।
जो कुछ बचा था बारिश बहा कर साथ ले गई,
वो रात फिर सन्नाटे की एक सौगात दे गई।

वहां जाने का अब कोई मतलब नहीं,
है देखने सुनने को अब कुछ भी नहीं।
सवाल पूंछती नौ लाश वो रात दे गई,
कुछ नए जज्बात ये बरसात दे गई।

© शिवांश मिश्रा

Loading...