लघुकथा –ओस से कतरे
वनवारी बाबु रात भर गर्मी मौसम में घुटनों के दर्द और खाँसी की वजह ठीक से सो भी नही पाये थे|सुवह सामने पार्क में खेलते बच्चों की आवाज़ ने नीद में खलल शुरू कर दिया ,तभी गेंद जौर से आकर खिड़की के शीशे पर लगी || बनवारी बाबु घर कि पहली मंजिल पर रहते थे, तभी बहुत सी आवाज़े, “गेंद दे दो अंकल जी !आने लगी, खिड़की की ओस साफ कर बाहर देखने कि कोशिश की,नहीं दिखा तो खोल देखा और बोले ,”कोई गेंद नहीं मिलेगी,सुवह ही शौर करने आ जातेहो ,जाओ अपने घरों को |” उसके बाद शांति हो गई| वनवारी बाबू सोने की कोशिश कर रहे थे,तभी खिड़की को खोल दोवारा देखा आठ साल का बच्चा देखते ही बोला,” दादू आप गेंद दे दो,ये मेरी गेंद हैं|” वनवारी बाबू को देख प्यार से मुस्कराने लगा,उसका चेहरा और बोलने का ढंग उसे अपने पोते अंशु जैसा लगा,” पोते की झलक उसमे दिखने लगी | तभी शीशे की ओस की कुछ बुँदे हाथ पर गिरी,उसने देखा लड़का वही बैठा हाथ जोड़ फिर इशारा करता है| बनवारी बाबु बोलते ,”ये लों अपनी बाल और दादू की तरफ से सेव |” ”चेहरा वात्सल्य भाव उनका चाहत से भरपूर था | मौलिक और अप्रकाशित.
रेखा मोहन 30/8/१८