मोरारजी देसाई का पत्र
अतीत की यादें
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श्री मोरारजी देसाई का पत्र
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जब मैं बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से एलएलबी कर रहा था ,तब मेरी इच्छा गाँधीजी के ट्रस्टीशिप विचार पर शोध करने की थी ।मैंने इस दिशा में काफी अध्ययन भी किया। इसी सिलसिले में ट्रस्टीशिप के प्रति अपने आकर्षण के कारण मैंने कुछ प्रसिद्ध राष्ट्रीय ख्याति के महानुभावों से इस बारे में पत्र लिखकर चर्चा की।
जिन महानुभावों ने मेरे पत्र का उत्तर दिया ,उनमें एक नाम भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई का भी था ।आपका पत्र इस दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण है कि आपका सारा जीवन गाँधीवादी विचारधारा के प्रति समर्पित रहा । समाज में गाँधी जी के सिद्धांतों के आधार पर किस प्रकार से व्यक्तिगत रूप से जीवन जिया जा सकता है और साथ ही साथ एक श्रेष्ठ गाँधीवादी सामाजिक – आर्थिक व्यवस्था की रचना हो सकती है, इसके बारे में भी आपका चिंतन मूल्यवान रहा है । जब आपका पत्र मेरे पास आया ,तब वह एक साधारण से पोस्टकार्ड पर था । नाम स्पष्ट लिखा हुआ था – मोरारजी देसाई ।
उस जमाने में यह एक प्रकार से गाँधीवादी सादगी की ही बात कही जा सकती है कि आपने बिना किसी तामझाम के सर्वसाधारण के प्रयोग में आने वाले सबसे सस्ते पोस्टकार्ड का प्रयोग किया और उस पर भी आपने कोई छपी हुई सामग्री अंकित नहीं की। इस तरह डाकघर से साधारण व्यक्ति जिस प्रकार से पोस्ट कार्ड खरीद कर पत्र – व्यवहार करता है ,वही आपकी पद्धति थी ।
जब पत्र आया और मैंने पढ़ा ,तब भाषा मुझे कुछ अटपटी – सी लगी। समझने में थोड़ी दिक्कत आई और मुझे लगा कि इसमें गुजराती का पुट है । तब मैं उसको समझने के लिए अपने विधि-संकाय के रीडर डॉ. सी.एम.जरीवाला साहब के पास चला गया । जरीवाला साहब का घर विश्वविद्यालय परिसर में ही था । उन्होंने बहुत स्नेह से मुझे बिठाया । मैंने उनके हाथों में मोरारजी भाई का पत्र दिया और उनसे आग्रह किया कि आप इस पत्र को पढ़कर मुझे सुनाने का कष्ट करें । मोरारजी देसाई का पत्र पढ़कर जरीवाला साहब बहुत आनंदित हो उठे। वह भी गुजरात के ही थे। मोरारजी देसाई भी गुजरात के थे । जरीवाला साहब ने पत्र को हाथ में लेकर अपनी पत्नी को आवाज दी और कहा ” देखो ! मोरारजी भाई का पत्र है ।”उनकी पत्नी तुरंत आ गई । फिर दोनों ने काफी देर तक उस पत्र को इस प्रकार से देखा मानो उनका कोई आत्मीय स्वजन गुजरात से पधारा हो। यह मोरारजी भाई की लोकप्रियता थी अथवा गुजराती होने के कारण परस्पर सम्मोहन था अथवा पत्र में गुजराती का पुट होने के कारण उन्हें उसमें विशेष रूप से अपनत्व का बोध हो रहा था, यह तो मैं नहीं कह सकता लेकिन फिर भी उनका भावनात्मक रूप से अत्यंत रोमांचित हो जाना विशेष महत्व रखता था।
मैं यही समझ रहा था कि पत्र देवनागरी लिपि में लिखित गुजराती में है । पत्र में जिस प्रकार की भाषा तथा शब्दों की लिखावट थी, वह भी प्रचलन में चल रही हिंदी से बहुत भिन्नता रखती थी । मोरारजी देसाई का लिखने का जो स्टाइल था ,वह संभवतः गुजराती से प्रभावित रहा होगा । बहरहाल मैं यही कह सकता हूँ कि वह पत्र देवनागरी लिपि में यद्यपि हिंदी में ही लिखित है तथापि उस पर गुजराती की बहुत गहरी और गंभीर छाप है । महापुरुषों के हस्तलिखित पत्र एक साधारण से पोस्टकार्ड पर , यहाँ तक कि पता तक अपने ही हाथ से मोरारजी देसाई ने लिखा ,यह एक बड़ी विशेषता है । मोरारजी देसाई की सादगी को नमन ।।
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मोरारजी देसाई का पत्र इस प्रकार है:-
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ओशियाना
ने.सु. रोड बंबई 400020
6 – 12 – 81
भाई श्री रवि प्रकाश,
आपका 1 तारीख का पत्र मुझे कल मिला । व्यक्तिगत संपत्ति का उन्मूलन संभवित नहीं है । कहीं भी सबको एक सरीखे बुद्धिमान या शरीर से समान शक्तिवान बनाना संभव नहीं है । इसलिए व्यक्तिगत संपत्ति का मूलन न शक्य है न संभवित है । राज्य सत्ता केंद्रित न हो और लोकतांत्रिक हो , यह आवश्यक है । इसलिए ट्रस्टीशिप की भावना ही समाज में न्यायी वितरण करा सकती है । गाँधीवादी समाज की रचना में ही यह शक्य है । पत्र में इन सब चीजों को समझाना असंभव है । कभी मिलोगे तब चर्चा करके संतोष देने का प्रयत्न कर सकता हूँ।
आपका
मोरारजी देसाई