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16 Oct 2021 · 6 min read

मेरी पत्रकारिता के साठ वर्ष (पुस्तक समीक्षा)

पत्रकारिता के पितामह श्री महेंद्र प्रसाद गुप्त
पुस्तक का नाम :मेरी पत्रकारिता के साठ वर्ष
लेखक : महेंद्र प्रसाद गुप्त
प्रकाशक : उत्तरा बुक्स बी-4/ 310सी, केशवपुरम ,दिल्ली 110035
प्रथम संस्करण 2016
कुल प्रष्ठ 184
मूल्य ₹395
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समीक्षक: रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99 97 61 545 1
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अगर श्री कमर रजा हैदरी “नवोदित” का महेंद्र जी से आग्रह नहीं होता तो महेंद्र जी न तो आत्मकथा लिखते और न पुस्तक रूप में उसका प्रकाशन हो पाता । यद्यपि सहकारी युग के लगभग 50 वर्ष के प्रकाशन काल में महेंद्र जी का लेखन हर अंक में सुरक्षित है लेकिन फिर भी अखबार तो अखबार होता है । उसमें जो लिखा होता है ,वह बिखर जाता है और पुस्तक में सारी चीजें सिमटकर एक साथ आ जाती हैं ।
“मेरी पत्रकारिता के साठ वर्ष “184 पृष्ठ की एक ऐसी पुस्तक है ,जिसमें महेंद्र जी के ईमानदारी से भरे हुए ,त्याग और तपस्या से चमकते हुए जीवन का एक ऐसा ब्यौरा है, जो इतिहास में किसी- किसी के हिस्से में आता है ।
महेंद्र जी का जन्म 23 अगस्त 1931 को रामपुर (उत्तर प्रदेश) में हुआ तथा मृत्यु 1 जनवरी 2019 को हुई। इस तरह लगभग 88 वर्ष का उनका जीवन उन उदार मूल्यों से प्रेरित रहा जो आज के समाज में न केवल दुर्लभ बल्कि लगभग असंभव ही कहे जा सकते हैं।
1953 में वह हिंदी दैनिक नवभारत टाइम्स के साथ संवाददाता के रूप में जुड़ गए और उसके बाद अंग्रेजी के अनेक समाचार पत्रों का उन्होंने संवाददाता के रूप में प्रतिनिधित्व किया। अंग्रेजी संवाद समिति पीटीआई (प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया) के संवाददाता का उनका दायित्व अंत तक रहा और लगभग 50 वर्ष से अधिक समय तक उन्होंने निरंतरता के साथ इसे निभाया। वह नेशनल हेराल्ड ,टाइम्स ऑफ इंडिया, पायनियर तथा नार्दन इंडिया पत्रिका के संवाददाता रहे । 15 अगस्त 1959 को उन्होंने ऐतिहासिक रूप से रामपुर से सहकारी युग (हिंदी साप्ताहिक ) का प्रकाशन आरंभ किया और कुछ ही समय में इसे भारत के महत्वपूर्ण साहित्यिक और वैचारिक पत्र के रूप में स्थापित कर दिया ।छह अथवा चार पृष्ठ का यह हिंदी साप्ताहिक 10 इंच × 15 इंच आकार के खुरदुरे अखबारी कागज पर छपता था । पत्र ने वैचारिक और साहित्यिक पत्रकारिता के एक नए दौर का आरंभ किया तथा कुछ ही वर्षों में रामपुर के छोटे से शहर से निकलकर इसने एक राष्ट्रीय छवि निर्मित कर ली। पत्रकारिता तथा साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन महेंद्र जी का मिशन था । उनका जीवन इसी ध्येय के लिए समर्पित था। प्रकाशन अच्छे ढंग से होता रहे , इसी को ध्यान में रखते हुए उन्होंने सहकारी युग प्रिंटिंग प्रेस का शुभारंभ 28 अगस्त 1960 को किया और इस तरह लिखना, पढ़ना और छापना महेंद्र जी की आजीविका का साधन भी बनने लगा। प्रिंटिंग प्रेस में उन्होंने न केवल सहकारी युग (हिंदी साप्ताहिक) का प्रकाशन किया बल्कि व्यापार के स्तर पर भी सब प्रकार की छपाइयों के द्वारा अपने परिवार का पालन पोषण किया। व्यापार में उन्होंने ईमानदारी को सर्वोपरि महत्व दिया। प्रिंटिंग प्रेस के झूठे बिल बनवा कर सरकारी दफ्तरों से अधिक पैसे ले लेने का भ्रष्ट आचरण आजादी के बाद आम होने लगा था। महेंद्र जी ने इस मार्ग को स्वीकार नहीं किया ।उन्होंने कमाया कम, लेकिन जितना कमाया उससे उनका खर्च भी चलता रहा तथा स्वाभिमान से उनका सिर भी हमेशा ऊँचा रहा ।
1945 में जब उनकी आयु लगभग 14 वर्ष की रही होगी, वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संपर्क में आए । रामपुर में चंद्रसेन की धर्मशाला में संघ की शाखा लग रही थी। “भारत माता की जय” सुनकर बालक महेंद्र धर्मशाला के अंदर चले गए और उन्हें अपनी भावनाओं के अनुरूप एक संगठन मिल गया। वह उसमें काम करते रहे । फिर जब 1948 में संघ के स्वयंसेवकों को गिरफ्तार करने का कार्य हुआ , तब हँसते-हँसते महेंद्र जी भी जेल गए। जेल में उनके प्रेरणा स्रोत आचार्य बृहस्पति थे, जो बाद में संगीत क्षेत्र में भारत की महान हस्ती बने । इसके अलावा संघ के प्रचारक श्री महेंद्र कुलश्रेष्ठ थे, जिन्होंने बाद में रामपुर से हिंदी के पहले साप्ताहिक “ज्योति” के संपादक का कार्यभार ग्रहण किया था। जेल में महेंद्र जी को कुर्सी बुनने का कार्य सिखाया गया तथा दो कुर्सी रोजाना बुनने का दायित्व उन पर था ।1947 में उन्होंने वृंदावन में संघ के एक माह का प्रशिक्षण, शिविर में प्राप्त किया । इसमें भी उनके गुरु आचार्य कैलाश चंद्र देव बृहस्पति उनके साथ थे ।(प्रष्ठ 19 , 20 , 22 तथा 26 )
पत्रकारिता में महेंद्र जी के व्यापक प्रभामंडल के कारण राजनीतिक दल तथा व्यक्ति उनका लाभ उठाने के लिए उत्सुक रहते थे। किसी भी प्रकार से प्रलोभन देकर उनकी लेखनी को अपने पक्ष में कर लेना उनकी इच्छा रहती थी ।लेकिन महेंद्र जी इस रास्ते से हमेशा अलग रहे । प्रलोभन दिए जाने के अनेक अवसर उनके सामने आए, लेकिन बहुत दृढ़तापूर्वक उन्होंने उन्हें अस्वीकार कर दिया। उन्होंने न तो संवाददाता के तौर पर अखबारों को भेजी जाने वाली रिपोर्ट में अपने हस्ताक्षर बेचे और न ही चिकनी मेजों पर फिसलती हुई नोटों की गड्डी पकड़ने की कला उन्हें आई। ( प्रष्ठ 44 से पृष्ठ 54)
पत्रकारिता के साथ-साथ महेंद्र जी का एक बड़ा योगदान रामपुर में ज्ञान मंदिर पुस्तकालय की गतिविधियों को सेवा भाव से संचालित करना भी रहा है। इसके लिए उनका एक बड़ा योगदान यह रहा कि मिस्टन गंज के चौराहे पर वर्तमान में पुस्तकालय जिस जमीन पर बना हुआ है ,वह जमीन उन्होंने अपने प्रभाव से ज्ञान मंदिर के नाम कराई थी। उस समय रामपुर के जिलाधिकारी श्री शिवराम सिंह थे। उन्होंने महेंद्र जी से कहा कि आवंटन की संस्तुति शासन को भेजने से पहले मैं चाहता हूँ ,यह संपत्ति तुम्हारे नाम अलाट करने के लिए शासन से प्रयास पूर्वक आग्रह करूँ। महेंद्र जी ने उनसे कहा कि ज्ञान मंदिर को यह भवन देकर आप मुझ पर उपकार करें। इस पर कलेक्टर ने समझाया कि लोग तुम्हारी इस त्यागी प्रवृत्ति को आने वाले समय में बिल्कुल भूल जाएँगे । लिहाजा मेरा परामर्श मानकर अपने नाम से आवंटन का प्रार्थना पत्र दे दो । लेकिन महेंद्र जी नहीं माने और उन्होंने वह संपत्ति प्रयत्न पूर्वक ज्ञान मंदिर के नाम ही कराई ।(पृष्ठ 55 तथा 56 )
पत्रकार के नाते महेंद्र जी की अविस्मरणीय मुलाकातें सर्व श्री अटल बिहारी वाजपेई ,चेन्ना रेड्डी,एस.निजलिंगप्पा, देवराज अर्स, नारायण दत्त तिवारी, चंद्रभानु गुप्त तथा बाबू जगजीवन राम आदि के साथ रहीं। उन्होंने शास्त्रीय संगीत गायिका नयना देवी तथा नृत्यांगना उमा शर्मा के साक्षात्कार भी लिए। प्रसिद्ध पार्श्व गायक मुकेश से भी आपने साक्षात्कार लिया ।
साहित्य जगत के शीर्ष स्तंभ सर्वश्री डॉ लक्ष्मीनारायण लाल ,विष्णु प्रभाकर, उमाकांत मालवीय आदि का प्रशंसा – प्रसाद आपको प्रचुर मात्रा में प्राप्त हुआ। प्रसिद्ध क्रांतिकारी मन्मथ नाथ गुप्त से आप की निकटता थी । समाजवादी नेता तथा बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मुकुट बिहारी लाल के प्रेरणादायक संस्मरण आपने पुस्तक में लिखें हैं। सहकारी युग (हिंदी साप्ताहिक) के प्रकाशन के लंबे दौर में आपकी निकटता कविवर सर्व श्री गोपाल दास नीरज ,भारत भूषण डा.बृजेंद्र अवस्थी, डॉ उर्मिलेश ,डा.मोहदत्त साथी ,गोपी वल्लभ सहाय आदि अनेकानेक कवि सम्मेलन के मंचों के लोकप्रिय कवियों से हो गई थी।( पृष्ठ 84 )
यह आपके ही व्यक्तित्व का प्रभाव था कि 1986 में आपने इन पंक्तियों के लेखक की पुस्तक ” रामपुर के रत्न” के विमोचन के लिए प्रसिद्ध साहित्यकार श्री विष्णु प्रभाकर को रामपुर आमंत्रित किया और विष्णु प्रभाकर जी दिल्ली से रामपुर केवल “रामपुर के रत्न” पुस्तक का लोकार्पण करने के लिए पधारे। (प्रष्ठ 78-81)
आत्मकथा का एक अध्याय रामपुर के तमाम जिलाधिकारियों के संस्मरण प्रस्तुत करने से संबंधित है । इसमें उन जिलाधिकारियों को जिस रूप में महेंद्र जी ने देखा परखा और उनका आकलन किया , उसका सुंदर रेखाचित्र शब्दों से खींचकर उपस्थित कर दिया है । इससे उच्च प्रशासनिक क्षेत्रों में महेंद्र जी को मिलने वाले महत्व तथा आदर – सम्मान का भी पता चलता है
कुल मिलाकर महेंद्र जी का जीवन सात्विक विचारों की ऊष्मा से संचालित था। कलम उनके लिए जीवन की साधना का प्रतीक बन गई थी ।समाज में जिन कुछ गिने-चुने लोगों को सच्चाई और ईमानदारी जिंदगी की सबसे बड़ी पूँजी नजर आती है, महेंद्र जी ऐसे अपवाद स्वरूप व्यक्तियों में से थे । उनकी आत्मकथा पढ़ने योग्य है।

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