कविता: बेटियाँ
बेटी है घर की शान।
होने न दो इसे तुम परेशान।
करने दो इसको जो चाहे,
बने डाॅक्टर या पहलवान।
पढ़ो पढ़ाओ बेटी के साथ।
पढ़े और बढ़े हमारे परिवार
एक नहीं अब दो-दो परिवारों की है बारी,
मिटा देगें जड़ से अज्ञानता अब सारी।
बहू बनाकर जिसे तुम लाते,
सतरंगी सपने लेके जो आती,
कैसी-कैसी बात सुनाते,
किन कर्मो की सजा हो देते,
बोले तो है बढ़ बोली,
चुप रहे तो है सोती रहती।
कुछ तो सोचों उसकी तुम भी,
जिसने सोच में तुम्हारी, अपनी उमर गँवाई।
कब जीवन वो अपना जी पाएगी,
बाबुल के घर से निकली थी जब,
दुआए खूब मिली थी दिल से,
मामा, चाचा, मौसी, भैया,
सबने कुछ ऐसा सोचा था,
बिटिया को सुन्दर संसार मिलेगा।
ऐसा कब किसने सोचा था,
गमों का माहौल बारहो मास मिलेगा।
प्रेम ही जीवन प्रेम ही तो है समापन,
प्रभु प्रेम में मिले जो सुख,
ऐसा सुन्दर संसार कहाँ,
व्यर्थ जीवन न तुम गँवाना।
सास, नंनद का झंझट छोड़ो,
पर अपने कत्र्तव्यों को पूरा कर दो,
परम पिता परमेश्वर से नाता जोड़ो,
उनका सब जग जगमग दिखता,
क्यों दुखों को गले लगाए,
घड़ी – घड़ी तुम प्रेम ही माँगो,
प्रभु तुम्हारे तैयार खड़े हैं।
प्रेम के सागर में,
क्यों ना तुम गोते खाओ।
बेटी है घर की शान।
होन न दो इसे तुम परेशान।
पूनम शर्मा