(6) सूने मंदिर के दीपक की लौ
तुम सूने मंदिर के दीपक की लौ बन आओ
मैं ज्योति तुम्हारी लेकर झलमल चमक पडूँ !
तुम अन्धकार में किरन रेख बन कौंधो
मैं अन्धकार बन सघन समाहित तुमको कर लूँ !
झरते झर-झर झरने मन में , कल- कल स्वर में जब हँसती तुम
मर-मर-मर पल्लव हिल उठते,होठों पर शब्द धारतीं तुम
सतरंगी तितलियाँ मन-वन में, उड़ रहीं तुम्हारी मुस्कानें
मैं दौड़ दौड़ कर उपवन में ये रंगमय मुस्कानें पकडूँ |
विद्युत् के कण स्नान कराते हैं मुझको,
मखमली करों से जब तुम मुझको छू देतीं
अमृत का नाद फिर शांत स्वरों में बह पड़ता
लज्जा से , धीरे से जब तुम मुसका देतीं
दो क्षण को जैसे विश्व रुके , जम जाए वहीँ
जब कृष्ण- कोर का हालाहल छलका देतीं
बेबस तन बहा, खिंचा जाता तुम तक फिर- फिर
मद- नद बन जब तुम प्रखर वेग से बह पडतीं
तुम धारा बन , ले सुधा, गरल, मद बह निकलो
मैं सागर बन कर तुम्हें आत्म- संस्थित कर लूँ !
तुम इन्द्र धनुष सी मन- नभ पर तिरछी छिटको
मैं सावन-घन बन बार बार तुमको ढापूं ?
तुम नीलाम्बर में श्वेत परी बन छिटको
मैं तारों का श्रृंगार गूंथ कर तुम्हें सजा दूं ?
नहीं , नहीं , नहीं ——
तुम सूने मंदिर के दीपक की लौ बन आओ
मैं ज्योति तुम्हारी लेकर झलमल चमक पडूँ ||
स्वरचित, मौलिक
रचयिता : (सत्य ) किशोर निगम