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11 Jan 2023 · 29 min read

51- प्रलय में भी…

51- प्रलय में भी…

प्रलय में भी मनुज था अरु आज भी।
काल कवलित रात का हर काज भी।।

स्वप्नवत द्रष्टा स्वयं दर्शक बना।
देखता आश्चर्यपूर्वक राज भी।।

संकुचन की यह गजब तस्वीर है।
था अखिल ब्रह्माण्ड का अंदाज भी।।

सृष्टि बनकर बीज खुद में खो गयी।
बीज अमृत पिण्ड तीरंदाज भी।।

था भयानक रात्रि में जलमग्न सब।
मौन सारी सृष्टि की आवाज भी।।

साँय करती दस दिशाएँ भयसहित।
निःशव्द है आकाश उन्नत राज भी।।

ब्रह्म की कैसी ये लीला ब्रह्म की चाहत है क्या?
ब्रह्म स्रष्टा ब्रह्म द्रष्टा ब्रह्म लीलाबाज भी।।

ब्रह्म की उपमा तो केवल ब्रह्म है।
सृष्टि में अरु प्रलय में भी ब्रह्म का ही राज भी।।

ब्रह्म की लीला समझता ब्रह्न ही।
भ्रमित करता ब्रह्म बैठकबाज भी।।

52- सिद्धांत…(तिकोनिया छंद)

सिद्धांत रच,
कुतर्क से बच।
कहते रह सच।।

प्रामाणिक हो,
बस वही कहो।
नित ज्ञान गहो।।

तर्कशील बन,
वैज्ञानिक मन।
सिद्धहस्त जन।।

सत्य राह चल,
अनुभव के बल।
पाओ मधु फल।।

शुभ्र बनोगे,
शुभद रहोगे।
विदुष दिखोगे।।

अंतिम बन जा,
तटस्थ हो जा।
निर्भय दिख जा।।

53- अंतिम इच्छा (दोहे)

अंतिम इच्छा है यही, मिले यही परिवार।
यही मिलें माता-पिता, यही मिले घर-द्वार।।

यही मिलें भाई-बहन, मिले यही ससुराल।
यही मिले पत्नी सहज, बने मधुर रखवाल।।

मिले मुझे बेटा यही, मिले पौत्र दो रत्न।
पुत्रवधू शीतल मिले,बिना किये कुछ यत्न।।

यही गाँव मुझको मिले, यह अति सुंदर धाम।
इसी ग्राम में बैठकर, जपूँ सदा हरि नाम।।

माँ सरस्वती नित करें,मेरे उर में वास।
लिखता रहूँ सुलेख मैं, रहकर माँ के पास।।

रामेश्वर की शरण में, बैठ जपूँ शिवराम।
महामंत्र की गूँज से, मिले मुझे विश्राम।।

सन्त समागम हो सदा, युगल-बीहारी साथ।
नागा बाबा की कृपा ,से मैं बनूँ सनाथ।।

डीहबाबा छाया तले, रहूँ सदा मैं बैठ।
आध्यात्मिक परिक्षेत्र में, होय नित्य घुसपैठ।।

अंतिम इच्छा बलवती, हो आध्यात्मिक राग।
बाँधे सारे लोक को , मेरे मन का ताग।।

मेरे मन के दोष का, शमन करें भगवान।
मैं कबीर बनकर चलूँ, मिले राम का ज्ञान।।

महापुरुष आदर्श हों, जागे धार्मिक भाव।
ममता करुणा प्रेम का, हो मन में सद्भाव।।

मानवता के शिखर पर, करूँ बैठकर खेल।
अंतिम चाहत है यही, रखूँ सभी से मेल।।

मेरे पावन हृदय में, बसे सकल संसार।
ऐसा मुझे प्रतीत हो, सारा जग परिवार।।

54- तुझको मेरा प्यार बुलाता (सजल)

आओ मैं इक बात बताता।
तुझको मेरा प्यार बुलाता।।

विछड़ गये हो राह में इक दिन।
मुझको मेरा प्यार सताता।।

कैसा यह संयोग दुःखद था।
मिला मिलन को धता बताता।।

किस्मत का है खेल अनूठा।
नहीं भाग्य में जो चल जाता।।

कितना है बलवान समय यह।
अपना बल-पौरुष दिखलाता।।

किस्मत में थी दुसह वेदना।
फिर कैसे नित रास रचाता।।

राह पूछते चल आना तुम।
तुझको मेरा प्यार बुलाता।।

अर्थ प्यार का अद्वितीय प्रिय।
मुझको तेरा प्यार सताता।।

दृढ़ विश्वास हृदय में बैठा।
श्रद्धा से सब कुछ मिल जाता।।

यहीं सोचकर जप करता हूँ।
ध्यानी-योगी सब पा जाता।।

मन से मिलन सहज संभव है।
निराकार तन भी मिल जाता।।

निराकार में सगुण तत्व भी।
सारा भेद-भाव मिट जाता।।

निहित सोच में सुख-विलास है।
पावन चिंतन मेल कराता।।

मिलना तय है नहिं कुछ शंका।
यही भाव हर्षित कर जाता।।

छिपा हर्ष में प्रिय का मिलना।
प्रमुदित मन में प्रिय बस जाता।।

मन में जो है साथ वही है।
मन से प्यार दिव्य मिल जाता।।

मन से प्यार करो अब वन्दे।
मन में छिपा प्यार दिख जाता।।

मन को परिधि क्षितिज का जानो।
मन से “प्यार” नाम मिल जाता।।

किसी बात की मत चिंता कर।
तप करने से प्रिय मिल जाता।।

तपते रहना सीख लिया जो।
वह सर्वोत्तम प्रियवर पाता।।

55- एक बार मेरा कहा मान लीजिये

बुला रहा है दोस्त कोई जान लीजिये।
एक बार मेरा कहा मान लीजिये।।

वफा निभाने में बहुत माहिर है वह मनुज।
इंसान इक महान को पहचान लीजिये।।

वादा निभाता हर समय बेरोक-टोक के।
दृढ़प्रतिज्ञ दोस्त को स्वीकार कीजिये।।

प्रेम का प्रारूप वह मानव महान है।
आँखे घुमाकर एकबार देख लीजिये।।

प्रेम प्राणिमात्र से करता सदा से है।
दोस्त के पैगाम को मुकाम दीजिये।।

56- सब अपने। (तिकोनिया छंद)

सब अपने हैं,
भाव बने हैं।
प्रिय अंगने है।।

सर्व बनोगे,
गगन दिखोगे।
सिंधु लगोगे।।

बनो अनंता,
दिख भगवंता।
शिवमय संता।।

गले लगाओ,
क्षिति बन जाओ।
प्रेम बहाओ।।

अश्रु पोंछना।
दुःख हर लेना।
प्रियतम बनना।।

दुःख का साथी,
सबका साथी।
जगत सारथी।।

पंथ बनोगे,
स्वयं चलोगे।
धर्म रचोगे।।

उत्तम श्रेणी,
सदा त्रिवेणी।
पावन वेणी।।

सबको उर में,
अंतःपुर में।
हरिहरपुर में।।

सबको ले चल,
पावन बन चल।
मानव केवल।।

57- आदि-अंत तक (तिकोनिया छंद)

आदि-अंत तक,
जीवनभर तक।
जी भर तबतक।।

जन्म-मृत्यु तक,
सकल समय तक।
मन हो जबतक।।

स्वस्थ रहोगे,
काम करोगे।
सुखी बनोगे।।

बन उदाहरण।,
प्रिय उच्चारण।
शुभ्र आचरण।।

आजीवन कर,
श्रम से रचकर।
दिनकर बनकर।।

कर्म करोगे,
धर्म बनोगे।
मर्म रचोगे।।

58- बहुत दूर…

बहुत दूर रहकर भी नजदीकियाँ हैं।
दिल से अदब से मधुर शुक्रिया है।।

मिली राह निःशुल्क अहसास की है।
नहीं दूरियाँ हैं नहीं गलतियाँ हैं।।

मन की है स्वीकृति तो सब कुछ सरल है।
गरल में भी अमृत की मधु चुस्कियाँ हैं।।

तरलता मधुरता सुघरता सहजता।
कली सी चहकती मधुर बोलियाँ हैं।।

नजदीक वह जो हृदय में बसा है।
बसेरे में चम-चम सदा रश्मियाँ हैं।।

न भूलेंगे जिसको वही तो निकट है।
बहुत दूर रहकर खनक चूड़ियाँ हैं।।

जहाँ मोह साकार बनकर विचरता।
वही तो मोहब्बत का असली जिया है।।

नहीं चिंता करना कभी दिल के मालिक।
दिल में ही रहतीं मधुर हस्तियाँ हैं।।

59- तुझे देखकर… ( वीर छंद)

कभी न लगना इतना क्रूर,
तुझे देखकर डर लगता है।
हो जाता मैं चकनाचूर,
जब भी तेरी छाया पड़ती।
चल जाओ तुम मुझसे दूर ,
कभी न अपना रूप दिखाना।
क्यों रहते हो मेरे पास,.
कहीं निकल जा मुझे छोड़ कर।
नहीं चाहिये तेरा साथ,
मुझे अकेला ही रहने दो।
मुझे अकेले में आनंद,
सदा मिलेगा इसे समझ लो।
मुझे चाहिये भय से मुक्ति,
निर्भयता ही मेरा जीवन।
तेरी छवि में डर का वास,
अब मत परेशान कर मुझको।
मुझे चाहिये अब एकांत,
यही जगह सर्वोत्तम सुखकर।
लेंगे केवल प्रभु का नाम,
सिर्फ साथ में ईश रहेंगे।
मुझे चाहिये सुख-विश्राम,
केवल ईश भजन से मतलब।
मिट जायेगा भय का भाव,
जब ईश्वर का दर्शन होगा।
नहीं चाहिये भय का साथ,
निर्भयता का सावन होगा।

60- शिक्षा-दीक्षा शून्य ( दोहे)

शिक्षा-दीक्षा शून्य में,दीख रहा हैवान।
मूर्खों जैसा बोलता, नीच अधम शैतान।।

संस्कार के नाम पर, दिखता रेगिस्तान।
करता ऐसा काम है, जैसे नीचिस्तान।।

चोरकट नम्बर एक का, है चरित्र से हीन।
अहंकार है देह का, शिष्टाचार विहीन।।

विद्वानों को देखकर, गाली देत अशिष्ट।
कहता अपने आप को, परम कुलीन विशिष्ट।।

भैंसा जैसा घूमता, मारत मुँह चहुँओर।
ईर्ष्या करता सन्त से, पकड़ घृणा की डोर।।

कुत्तों जैसा भूँकता, करत निरर्थक बात।
क्या पायें क्या लूट लें, यही सोच दिन-रात।।

मन में रहता पाप है, प्रति क्षण कुटिल विचार।
बने हुये हैं मूल्य बस, अनाचार व्यभिचार।।

सत्संगति से है घृणा, है कुसंग से प्रीति।
कुत्सित भावों से लदा, करता सदा अनीति।।

61- हंसवाहिनी मधुशाला

नीरक्षीर को अलग-थलग, कर देता है मेरा प्याला;
मधुर क्षीर से सराबोर है, मेरी मधुमय प्रिय हाला;
सद्विवेक के चरम शीर्ष पर, खड़ा दीवाना साकी है;
सर्व लोक में सर्व मान्य है, हंसवाहिनी मधुशाला।

मधुर राग सब में भर देने, को आतुर मेरा प्याला.,
कला और संगीत सुधामय, है मेरी मादक हाला;
परम मदनमय प्रिय मनरंजक,मनमोहक मेरा साकी;
जनमानस की बनी रंजनी, हंसवाहिनी मधुशाला।

62- नित्य नयेपन का अहसास
(वीर रस)

नित्य नयेपन का अहसास,
लाता रोज मधुर खुशियाँ हैं।
मन में उठता अति उल्लास,
दिल में छा जाता उमंग है।
अंतस हर्षित अति रोमांच,
सब कुछ लगता दिव्य नवल नव।
रख सबके प्रति अभिनव भाव,
दृश्य बदल जायेगा तत्क्षण।
नहीं पुराना किसी को मान,
रखना भाव सहज नूतन का।
पाते रहना दिव्य प्रसाद,
जीवन में आनंद मिलेगा।
नहीं पूरानी कोई चीज,
सबमें खोजो नयी नवेली।
इसी खोज से पहुँचो लोक,
यही लोक बैकुण्ठ धाम है।
करते रहना सदा प्रयास,
जीवन पर्व बनेगा निश्चित।
पा जाओगे अंतिम धाम,
यही नयेपन का रहस्य है।

63- मजलिस (चौपाई)

मेरी मजलिस में आना है।
प्रेम गीत तुझको गाना है।।
पैर में घुँघरू बाँधे रहना।
झूम-झूम कर सदा नाचना।।

बीच-बीच में बोला करना।
श्रोता को संबोधित करना।।
प्रेम शव्द पर वार्ता करना।
श्रोत का दुःखहर्त्ता बनना।।

मजलिस की शोभा बन जाना।
नाच-नाच कर रंग जमाना।।
मुस्कानों से मन भर देना।
सबको हराभरा कर देना।।

मजलिस में आकर छा जाना।
प्रेम शव्द का अर्थ बताना।।
देखो सबमें झाँक-झाँक कर।
फैले जलवा मधुर मनोहर।।

हो व्याख्यान प्रेमरसपूरित।
झाँकी में हो प्रेम सुशोभित।।
रस बरसे टपके मधु सब पर।
दिखे प्रेमश्री हर मस्तक पर।।

64- मस्ती में… (चौपाई)

मस्ती में ही चलते रहना।
द्वंद्व छोड़कर आगे बढ़ना।।
चिंता छोड़ो प्रिय ईश्वर पर।
चलते रहना न्याय पंथ पर।।

मस्ताना अंदाज निराला।
सबका रक्षक ऊपरवाला।
बनो पाठशाला हितकारी।
पाठ पढ़ाओ शिष्टाचारी।।

दंभ कपट को सहज त्यागना।
मिथ्यावादन कभी न करना।।
सच्चाई की राह पकड़ना।
मित-मृदुभाषी बनकर चलना।।

चलना सीखो शीश झुकाकर।
कर प्रणाम नतमस्तक हो कर।।
प्रभु चरणों में न्योछावर कर।
बाँट स्वयं को बन प्रसादघर।।

लूटो नहीं लुटाओ खुद को।
सीखो और सिखाओ सबको।।
प्रेम रसामृत महज पिलाओ।
आनंदी जल में नहलाओ।।

65- प्रेम मगन हो कर…(चौपाई)

प्रेम मगन हो कर नाचेंगे।
प्रेमीजन खुद ही आँकेंगे।।
देख-देखकर नृत्य मनोहर।
सब झूमेंगे मानव सुंदर।।

सुंदर मानव वही एक है।
प्रेमातुर जो दिव्य नेक है।।
प्रेम वही है जहाँ सत्य है।
प्रेमहीन दानव असत्य है।।

सत्यार्थी ही प्रेमी बनता।
प्रेम पंथ का परिचय देता।।
प्रेम पंथ पर गंगा बहतीं।
सबका तन-मन चंगा करतीं।।

सकल विश्व संगममय होगा।
सारा जगत सजल जब होगा।।
आँखों में जब करुणा होगी।
मानवता प्रिय तरुणा होगी।।

दिव्य भावमय दुनिया होगी।
प्रेम नाम की मनिया होगी।।
प्रेम मंत्र का जाप चलेगा।
सत्व प्रेम से पाप कटेगा।।

दिल में रसमय सरगम होगा।
प्रेम गीत का मरहम होगा।।
नाचेंगे हम झूम-झूमकर।
मानवता को चूम-चूमकर।।

66- छिपता नहीं है प्यार

छिपता नहीं है प्यार,
दीवाना मन कहता है।
मिलता नहीं है प्यार,
जमाना यह कहता है।
चलो करो इतबार,
स्वयं पर वन्दे।
मिलेगा इक दिन प्यार,
दीवाना दिल कहता है।
बनकर रहो स्वतंत्र,
छाया देना अति शीतल।
मिल जायेगा प्यार,
यह मेरा मन कहता है।
राग-द्वेष के पार,
उतर कर चलना सीखो।
देना सीखो प्यार,
बस यही प्यार कहता है।
मिल जायेगा प्यार,
दीवाना दिल कहता है।

67- रावण पाठ (चौपाई)

जबतक रावण पाठ चलेगा।
कलियुग का विस्तार बढ़ेगा।
सिर पर चढ़कर पाप चलेगा।
अनुदिन अत्याचार बढ़ेगा।।

अघ अपसंस्कृति नृत्य करेगी।
पाप वृत्ति अति स्तुत्य रहेगी।।
पाप करेगा अति कोलाहल।
छुन-छुन बजे राक्षसी पायल।।

अनाचार चढ़कर बोलेगा।
क्रूर डराता हुआ चलेगा।।
हिंसा के बादल उमड़ेंगे।
सत्य अहिंसा प्रेम सड़ेंगे।।

घोर अपावन मेल करेंगे।
सभी दरिंदे खेल करेंगे।।
दूषित वातावरण विषैला।
चारोंतरफ दिखेगा मैला।।

सतत खून की होली होगी।
दानवता की गोली होगी।।
धूं-धूं जल जायेगा मानव।
सीने पर होगा अहि-दानव।।

स्वर्ग छोड़कर नरक गढ़ नहीं।
प्राणि मात्र में फर्क कर नहीं।।
अगर राम को अपनाओगे।
उत्तम मानव बन जाओगे।।

68- रामचरणरज…. (चौपाई)

रामचरणरज का अनुरागी।
तीन लोक में अति बड़भागी।।
अति विशाल हिम गहन समंदर।
महा पुरुष अति पावन सुंदर।।

रामचरणरज में रघुनंदन।
करो सदा उनका नित वंदन।।
ले रज अपने शीश चढ़ाओ।
नियमित कृपा राम की पाओ।।

राम समान नहीं कोई है।
यह दुनिया फिर भी सोयी है।।
राम चरित्र विशाल अनंता।
आजीवन गावत हर संता।।

अति उदारवादी रघुनायक।
भक्तजनों के सदा सहायक।।
उच्चादर्श परम वैरागी।
धर्मपरायण जनानुरागी।।

समदर्शी निःस्वार्थी रघुबर।
धर्मपाणिनि ज्ञान धुरंधर।।
इच्छारहित उदासमना हैं।
अनुपम लोकातीत जना हैं।।

रामचन्द्र को जो भजता है।
उसको शिव का पद मिलता है।।
धन्य वही मानव इस जग में।
ध्यानावस्थित जो प्रभु पग में।।

69- सत्ता का लोभ (दोहे)

सत्ता पाने के लिये,मानव बहुत बेचैन।
इसकी खातिर मनुज नित, अति चिंतित दिन-रैन।।

तिकड़मबाजी नित करत, चलता सारी चाल।
सत्ता पाने के लिये, रहता, सदा बेहाल।।

सत्ताधारी का करत, सत्ताहीन विरोध।
सत्ता पाने के लिये, करता सारे शोध।।

सत्ता पा कर मनुज खुद, को समझत भगवान।
सत्ता से सामान्य जन, बन जाता धनवान।।

सत्ता में मद है भरा, जिसको पी भरपूर।
हो मदांध नित घूमता, सत्ताधारी क्रूर।।

सत्ता-लोभ सता रहा, हर मानव को आज।
चाह रहा बनना मनुज, दैत्यराज यमराज।।

मानव बनने का नहीं, रह जाता कुछ अर्थ।
सत्ता बिन सब कुछ लगत, फीका-फीका व्यर्थ।।

सत्ता की कुर्सी पकड़, चिपका सत्तावान।
खूनी पर्व मना रहा, सत्ता का शैतान।।

मायावी सत्ता प्रबल, करती बहुत अनर्थ।
फिसले कभी न हाथ से, इसी तथ्य का अर्थ।।

70- अनुशासन चालीसा

जय जय जय जय जय अनुशासन।
हो तेरा केवल अभिवादन।।
पूजे तुझको सारी दुनिया।
उर में लेकर पावन मनिया।।

हो तेरा ही नाम जगत में।
तेरा वंदन नित्य स्वगत में।।
तेरा हो नियमित गुणगायन।
तुझसे हो दिल में मनसायन।।

रहो तुम्हीं बैठे अधरों पर।
हो प्रभाव तेरा वधिरों पर।।
तुम बैठे मन में मुस्काओ।
नियमित सुंदर गेह सजाओ।।

अनुशासन में सारा जग हो।
नियमविरुद्ध नहीं कोई हो।।
सभी करें विश्वास सभी में।
देखें ईश्वर को नियमों में।।

अनुशासन ही सदाचार हो।
सबके प्रति सम्मान-प्यार हो।।
सतत सहज सत्कार भाव हो।
सबके ऊपर मधु प्रभाव हो।।

करें सभी नियमों का पालन।
प्रिय नियमों का हो संचालन।।
सभी करें सम्मान नियम का।
परिचय दें सब अति संयम का।।

रहें सभी जन सदा नियंत्रित।
जीवन हो अतिशय मर्यादित।।
जीवन शैली रहे प्रतिष्ठित।
मन के सारे भाव संगठित।।

शिष्ट आचरण उर में जागे।
दुष्ट कामना मन से भागे।।
सुंदर कृत्यों का आलय हो।
अनुशासन का देवालय हो।।

नारा लगे शुभद शासन का।
शुभ्र प्रशासन के आवन का।।
अनुशासन हो धर्म समाना।
नहीं करे कोई मनमाना।।

सबका जीवन अनुशासित हो।
सहज प्रकाशित आशान्वित हो।।
निर्मल धवल दिव्य उज्ज्वल हो।
मन में सौम्य विचार प्रबल हो।।
दोहा:
नियमवद्ध हो कर चले, जीवन का व्यापार।
सभी समन्वय भाव से, करें सुखद व्यवहार।।

71- धैर्य चालीसा

सदा धैर्य की दिव्य विजय हो।
जय हो जय हो धैर्य अजय हो।।
धैर्य पंथ पर जो चलता है।
वही सफल मानव बनता है।।

संकट में धीरज धारण कर।
सब्र करो आनंद किया कर।।
धीरज ही संकटमोचन है।
महावीर हनुमानचरण है।।

करो धैर्य की नित्य प्रशंसा।
सदा धैर्य की हो अनुशंसा।।
धैर्य-धारणा सफल बनाती।
मानव को सुख-शांति दिलाती।।

सीखो आत्मनियन्त्रित रहना।
मन-विकार से दूरी रखना।।
सदा सन्तुलन सुखी बनाता।
सारे दुःख को मार गिराता।।

मन में दुःख-संकट मत पालो।
इनको मन से सतत निकालो।।
अच्छी सोच रखो नित मन में।
भय को देखो नहीं सपन में।।

द्वंद्वरहित अवसाद रहित बन।
दुःख दरिया के पार रहे मन।।
दुःख की कभी न चिंता करना।
ईश भजन नित करते रहना।।

बेसब्री का त्याग करो नित।
बन करके चलना इन्द्रियजित।।
सदा मारते रह दानव को।
मन में रहने दो मानव को।।

विचलन का तुम नाम न लेना।
स्थिरता को छोड़ न देना।।
मन में सुंदर विंदु बनाओ।
सदा सहजमय सिंधु नहाओ।।

बनकर चलते रहो साहसी।
विचलित हो मत बनो आलसी।।
अंधकार में कभी न फँसना।
आशालोक विचरते रहना।।

आशावादी बनकर जीना।
निश्चिंता की हाला पीना।।
निर्भयता का परिचय देना।
उद्वेगों से बचते रहना।।

दोहा:
विपदा में नित धैर्य से,करते रहना प्रीति।
अवसादों से मुक्ति की, यह अति सुंदर नीति।।

72- प्रीति चालीसा

सदा प्रीति का जयकारा हो।
सहज प्रेम रस की धारा हो।।
प्रेम बहे मादकता लाये।
सबको मय का पान कराये।।

जय जय जय जय प्रीति रसायन।
सभी करें उठ तेरा गायन।।
तुम आसव हो अमृत सागर।
नेति नेति ब्राह्मी मधु नागर।।

जय हो जय हो प्रीति सुधा रस।
एक मात्र हो तुम्हीं कीर्ति यश।।
सर्वगुणी अति शांति स्वरूपा।
दिव्य भावमय तरल अनूपा।।

ब्रह्म सदृश अति निर्मल धवला।
प्रेममयी दिव्या प्रिय सरला।।
ज्ञानमयी विदुषी मनभावन।
प्रेमोत्पादक बहुत सुहावन।।

सबको रोमांचित करती हो।
दिल में तुम बैठी रहती हो।।
देती सबको प्रिय अमृत हो।
अमर सुहागन शुभ सत्कृत हो।।

ब्रह्म लोक से तुम आयी हो।
अमृत कलश संग लायी हो।।
अमर बनाना ध्येय तुम्हारा।
बनकर प्रेम गंग की धारा।।

सबकी खातिर तुम जीती हो।
सबकी नजरों को पीती हो।।
सबके दिल की अमृत धारा।
तुझपर मोहित यह जग सारा।।

हर प्राणी का तुम्हीं ध्येय हो।
स्नेह रागिनी त्वरा गेय हो।।
प्यास बुझाती जब खुश होती।
सारा ज़ख्म-घाव भर देती।।

खुशियों की बौछार तुम्हीं हो।
रंगों का त्योहार तुम्हीं हो।।
बरसाना की तुम होली हो।
मादक भोजपुरी बोली हो।।

ज्ञान प्रेम भक्ति का सरगम।
गंगा यमुना सुरसति संगम।।
प्रीति अमृता में जीवन है।
जीवन सुंदर प्रीति कथन है।।

जिसको मिलती सहज प्रीति है।
बन जाता वह मधुर गीति है।।
प्रीति गीत गाता दिन-रैना।
पाता आजीवन सुख-चैना।।

दोहा:

प्रीति रसायन पान कर, रहना सदा प्रसन्न।
जिसके उर में प्रीति है, सुख उसके आसन्न।।

73- विश्व हिन्दी चालीसा

हिंदी की जय जयकारा हो।
हिंदी जग का हरिद्वारा हो।।
हिंदी से ही विश्व बनेगा।
हिंदी से ही कष्ट मिटेगा।।

हिंदी पावन नाम अमर है।
संस्कृत सुता परम सुंदर है।।
संस्कृत से निकली यह भाषा।
मानवता की प्रिय परिभाषा।।

यह साहित्य मनुज का रक्षक।
ललित मनोरम अनुपम शिक्षक।।
ज्ञानदायिनी दिव्य तपस्विनि।
हिंदवाहिनी सुभग यशस्विनि।।

रसाकार मार्मिक अति सभ्या।
हिंददेश की मृदुल सुरम्या।।
हितकारी न्यायिक दीवानी।
हिंदी भाषा सरस सुहानी ।।

हिम सी शीतल हिंदी बोली।
यह मानवता की हमजोली।।
हिंदी में ही विश्व हृदय है।
इसमें जग का अरुणोदय है।।

हिंदी को जो नहीं जानता।
वह खुद को भी नहीं मानता।।
वैश्विक भाव भरा हिंदी में।
मानव सहज सरस हिंदी में।।

साधारण जीवन जीती है।
हिंदी मन मोहित करती है।।
हिंदी में अमृत सागर है।
ईर्ष्या-द्वेषरहित आखर है।।

अ से अनुभव क से करनी।
हिंदी भाषा सुंदर घरनी।।
आ से आम खिलाती हिंदी।
का से काम दिलाती हिंदी।।

हिंदी प्रिय अनमोल रतन है।
इसमें मात्रा भार वजन है।।
हिंदी चढ़कर बोला करती।
सकल जगत में डोला करती।।

हिंदी पर है जग दीवाना।
हिंद सिंधु में सदा नहाना।।
हिंदी जिसको प्रिय लगती है।
उसकी कविता शिव रचती है।।

सीखो हिंदी में ही लिखना।
हिंदी पढ़कर मानव बनना।।
आत्मशक्ति हिंदी देती है।
पाण्डव संस्कृति नित रचती है।।

दोहा:

हिंदी में ही काम कर,हिंदी में ही नाम।
हिंदी पूरे विश्व में, भाषाओं का धाम।।

74- विश्व हिन्दी शतक

हिंदी मातृ धाम शुभ राशी।
अतिशय गहरी शशि-आकाशी।।
अति प्रिय मादक मदन मनोरथ।
करती सहज सुशोभित जग रथ।।

कामधेनु सम प्रिय उपकारी।
जनादेशमय जिमि महतारी।।
ताकतवर अति प्रिया विशाला।
धैर्यवती कल्याण शिवाला।।

अति गतिशील सुमानक भाषा।
पूरी करती सबकी आशा।।
त्रिलोकगामी सत्य सुचेता।
परम देव सम जिमि नचिकेता।।

अर्थयुक्त अर्थार्थ अर्थवत।
मधुर शब्द शब्दार्थ शब्दवत।।
परम वाक्यामय परम वेदमय।
परम प्रभाववती गरिमामय।।

ध्यानमग्न हिंदी सेवारत।
स्वयं ध्यान विज्ञान विज्ञवत।।
परम विवेकी हिंदी माता।
अति प्रफुल्ल मन जग सुखदाता।।

संस्कृति रचती चलती रहती।
सर्व कर्मफल देती चलती।।
हिंदी श्रीमद्भगवद्गीता।
दिव्य लोचमय मृदुल पुनीता।।

अधरों पर जिसके हिंदी है।
जिसकी जिह्वा पर हिंदी है।।
इस जगती में वही लोकप्रिय।
धरती पर उसका पावन हिय।।

हिंदी सबको प्रेम सिखाती।
मानवता का अर्थ बताती।।
दीन-हीन की रक्षा करना।
परहित हेतु तपस्या करना।।

हिंदी जग की जनभाषा हो।
सारे जग की अभिलाषा हो।।
सेवन करें सभी हिंदी का।
सारी जगत बने हिंदी का।।

हिंदी करती यही अनुग्रह।
हो हिंदी का मान सब जगह।।
हिंदी में ही लिखना होगा।
हिंदी को ही पढ़ना होगा।।

हिंदी में ही जीना होगा।
हिंदी को ही पीना होगा।।
हिंदी में ही चलना होगा।
हिंदी में ही पलना होगा।।

हिंदी को अपनाना होगा।
खुद का मान जगाना होगा।।
हिंदी में ही करो परिश्रम।
हिंदी को ही समझो आश्रम।।

हिंदी में जब काम करोगें।
हिंदी में अति नाम करोगे।।
हिंदी को ही समझो आशा।
लिख हिंदी में स्व-परिभाषा।।

हिंदी में ही प्यार छिपा है।
हिंदी में परिवार छिपा है।
हिंदी में ही राधे-कृष्णा।
माँ सरस्वती की है वीणा।।

हिंदी में ही रामचरित है।
हिंदी में शिव का स्वर-चित है।।
हिंदी संस्कृत की वनिता है।
परम अलौकिक मधु कविता है।।

मधुर स्वादमय सुरभित आसव।
बिन हिंदी समझो सब कुछ शव।।
हिंदी असली गंगासागर।
परम पावनी जगत उजागर।।

हिंदी स्वर्गिक मूलमंत्र है।
अतिशय पावन ज्ञान तंत्र है।।
प्यारे!हिंदी गीत बनाओ।
सारे जग को खूब बताओ।।

रचनाकार बनो हिंदी का।
सदा काम करना हिंदी का।।
आनेवाला कल उज्ज्वल है।
हिंदी पावन दिव्य धवल है।।

जिसने सज-धज स्वयं सँवारा।
लगा विश्व को सच्चा प्यारा।।
दिनकर, महावीर बन जाओ।
बना निराला अब छा जाओ।।

जयशंकर प्रसाद बन जाओ।
हिंदी से ही नाम कमाओ।।
तुझको पूजेगी यह जगती।
सम्मानित हो भारत धरती।।

भारत माता की जय जय हो।
हिंदी की ही सतत विजय हो।।
हिंदी से संसार बनेगा।
भारत वर्ष समाज खिलेगा।।

जग ही हिंदुस्तान बनेगा।
सर्व धर्म सम भाव खिलेगा।।
मानवता का वंदन होगा।
हिंदी का अभिनंदन होगा।।

हिंदी का स्वर-व्यंजन होगा।
हिंदी का मधु गुंजन होगा।।
खग-मृग सब हिंदी बोलेंगे।
जग के सारे मन डोलेंगे।।

मधुर हृदय हिंदी का बोले।
मधुर सरस रस सबमें घोले।।
हिंदी का मधुमास दिखेगा।
सुंदर मन अहसास जगेगा।।

हिंदी को शत-शत प्रणाम कर।
हिंदी को ही नित्य नमन कर।।
हिंदी से जब प्यार करोगे।
मानवता का यार बनोगे।।

दोहा-

हिंदी का सत्कार कर, हिंदी का सम्मान।
हिंदी को अब जान लो, हिंदी है भगवान।।

75- हिंदी माँ (दोहे)

हिंदी माँ से है मिली, हिंदी को माँ जान।
हिंदी माँ का गान कर, दो हिंदी को मान।।

माँ से रिश्ता है अगर, कर हिंदी से प्यार।
होगा हिंदी भाव से, जीवन का उद्धार।।

अक्षर-अक्षर से रचित, होता जीवन ग्रन्थ।
पग-पग पर माँ के कदम, से बन जाता पंथ।।

हिंदी शब्दों में छिपी, माँ की सुंदर मूर्ति।
हिंदी-हिंदुस्तान से, होगी सबकी पूर्ति।।

हिंदी में है रस भरा, हिंद रसायनशास्त्र।
हिंदी में सब काम कर, यह सर्वोत्तम शास्त्र।।

रस की अभिलाषा अगर, कर हिंदी से प्रीति।
हिंदी का परित्याग कर, मत कर कभी अनीति।।

स्वर्णाभूषण से अधिक, हिंदी का सम्मान।
अलंकार यह विश्व का, कर इसपर अभिमान।।

छंदवद्ध हिंदी परम,महा काव्य की राह।
छंद विधा को पकड़ कर, पूरी कर लो चाह।।

अमरबेलि हिंदी अजर, अति सुरभित फलदार।
बहती रहती अहर्निश, इससे मधु रसधार।।

यह मोदक मिष्ठान्न है, अतिशय रुचिकर स्वाद।
हिंदी के हर अंग से निकलत, अनहद नाद।।

हिंदी ही इस विश्व का, सहज मोक्ष का द्वार।
ओढ़ चुनरिया हिंद की, रच वैश्विक परिवार।।

76- प्रेमपंथ चालीसा

सदा प्रेम में रस रहता है।
हर मौसम में वह बहता है।।
मादकता रस में होती है।
रस की वर्षा में ज्योती है।।

छिपी ज्योति में विह्वलता है।
विह्वलता में चंचलता है।।
चंचलता में नाद छिपा है।
मथित नाद में स्वाद छिपा है।।

इसी स्वाद के लिये तड़पता।
सारा जग अति व्याकुल रहता।।
मिल जाने पर सुख ही सुख है।
नहीं मिले तो दुःख ही दुःख है।।

हर मानव को प्रेम चाहिये।
नैसर्गिक सुखचैन चाहियें।।
यह जीवन का आत्मिक अंगा।
इसके बिन जीवन-मन भंगा।।

ऐसे बहुत तमाम लोग हैं।
जिनको असहज प्रेम रोग है।।
तड़प-तड़पकर मर जाते हैं।
फिर भी प्रेम नहीं पाते हैं।।

बड़े भाग्य से यह मिलता है।
भाग्यमान पाता रहता है।।
जिसपर ईश्वर की है छाया।।
उस पर होत प्रेम की दाया।।

पाने की अभिलाषा मत रख।
सिर्फ बाँटने की इच्छा रख।।
इसको देते आगे बढ़ना।
इसका विनिमय कभी न करना।।

यह विनमय की चीज नहीं है।
रेगिस्तानी बीज नहीं है।।
जहाँ कहीं उर में हरियाली।।
दिखती वहीं प्रेम की प्याली।।

प्रेमपंथ श्रृंगार अमिय रस।
खींचत सकल जहां को बरबस।।
सारे जग को यही नचाता।
जीवन का रहस्य बतलाता।।

चलकर देखो बनकर पंथी।
खुल जायेगी सारी ग्रन्थी।।
कहीं नहीं लटकेगा ताला।
बन जाओगे कंचन प्याला।।

दोहा-

प्रेमपंथ जिसने गहा, बना सुदर्शन विज्ञ।
जी भर अमृत प्रेम पी, ज्ञानी बना सुभिज्ञ।।

77- ज्ञान चालीसा

सदा ज्ञान को अमृत जानो।
समझदार बन सब पहचानो।।
ज्ञान समान नहीं जग में कुछ।
ज्ञानी एक मात्र है सब कुछ।।

जो ज्ञानी वह होत विवेकी।
जीव मात्र पर करता नेकी।।
पारदर्शिता का पोषक वह।
विज्ञ बना देखत सब कुछ वह।।

परम तपस्या का फल ज्ञाना।
ध्यानावस्थित चित्त सुजाना।।
ज्ञान रतन प्रिय दिव्य वतन है।
छिपा ज्ञान में ध्यान गहन है।।

बोध ज्ञान का मूलाधारा।
बोधरहित नर विषय-विकारा।।
ज्ञान चेतना का द्योतक है।
यह संस्कृति का उत्प्रेरक है।।

बिना ज्ञान संस्कृति नहिं बनती।
संस्कृति सभ्य मनुज को रचती।।
मानव निर्माता बन जाता।
सकल जगत को सुख पहुँचाता।।

अनुभवसिद्ध ज्ञान परमार्थी।
उत्तम अनुभव बिन मन स्वार्थी।।
अति अनुभव है ज्ञान प्रदाता।
सहज अनुभवी प्रिय सुखदाता।।

बिना ज्ञान के नहीं प्रतीती।
बिन प्रतीति के होत न प्रीती।।
प्रीति बिना नहिं भक्ति मिलत है।
भक्ति बिना नहिं शक्ति चलत है।।

बिना ज्ञान के नहिं परिचय है।
ज्ञान बिना नहिं प्रिय अभिनय है।।
मधु अभिनय बिन नहीं सफलता।
अभिनयरहित प्रतीक विफलता।।

ज्ञान दिलाता आत्मज्ञान है।
आत्मज्ञान में मोक्षज्ञान है।
आत्मज्ञान बिन मानव सूना।
दिन दूना अरु रात चौगुना।।

ज्ञानकलशमन का कर वंदन।
यह अति पावन शीतल चंदन।।
ज्ञानप्रकाशमान बन चलना।
सदा ज्ञान की इज्जत करना।।

दोहा-

ज्ञानी बनने के लिये, करते रहो प्रयास।
ज्ञानीजन के हृदय में, स्थित दिव्य प्रकाश।।

78- शांति-दूत चालीसा

शांति-दूत को नमस्कार कर।
हाथ जोड़कर नित प्रणाम कर।।
समझो उसको असली ईश्वर।
वही एक है सच्चा प्रियवर।।

शांति-दूत अति प्रिय कहलाता।
मानव को सुख-चैन दिलाता।।
ईर्ष्या-द्वेष-कलह का मोचक।
पावन चिंतन का संपोषक। ।।

विघटन के विरुद्ध वह लड़ता।
सुंदर बातें करता रहता।।
सहयोगी प्रवृत्ति का नायक।
मानवता का दिव्य सहायक।।

प्रेमवाद शिववाद समर्थक।
प्रेममगन दिखता मनमोहक।।
सबके प्रति अनुराग सहज है।
दया भाव सम भाव महज है।।

करुणा सिंधु अपार सुधाकर।
सत्य प्रकाशित सदा दिवाकर।।
तिमिर-मोह का अति नाशक है।
दिव्य धाम का प्रिय वाहक है।।

रामचन्द्र सा शिवशंकर सा।
त्याग औऱ कल्याण सदृश सा।।
सबकी रक्षा का व्रतधारी।
आत्मवाद का परम पुजारी।।

मधुरवादमय पूज्य धाममय।
निष्कामी सप्रेम श्याममय।।
स्थिर मानस सुष्ठ सौम्य सत।
निश्चिंतादायक प्रशांतवत।।

उरवादी उदारवादी सा।
शुभावलंबी प्रियवादी सा।।
प्रज्ञाचक्षुमान अति हितकर।
शान्तचित्तमय अतिशय प्रियकर।।

अति प्रिय रसमय सरस सुसज्जन।
साधु संत सम देव निरंजन।।
सुधारवादी सुघर शुभ्र शिव।
अति विश्राम धाम नेह इव।।

विश्व सहोदर मानववादी।
अतिशय भावुक शिव जनवादी।।
ज्ञान ध्यान सम्मान अलंकृत।
आन बान प्रिय शान सुसज्जित।।

दोहा-

शांति-दूत इस लोक में, दिव्य आत्म अनुराग।
मधुर -मधुर मकरंद रस, सम यह अति बड़ भाग।।

79- वेदना (सोरठा)

कौन करे उपचार,मन में उठती वेदना।
अब जीना धिक्कार, कोई सुनता है नहीं।।

दिल है बहुत बेचैन, अपने भी आज बेगान।
रोता मन दिन-रैन, दिखते बहरे आज सब।।

पाँवों में है घाव, चलना-फिरना है कठिन।
मिलती कहीं न छाँव, सूख रहे हैं वृक्ष सब।।

सूख रहा सम्मान, सभी संकुचित हो गये ।
नहीं स्वयं पर ध्यान, आत्मबोध नद शून्य।।

नहीं किसी को भान, टूट रहे यद्यपि सभी।
बनते खुद मस्तान, भीतर से कुंठित बहुत।।

देख बगल मुस्कान, जलने लगता आदमी।
अपनी कुछ पहचान, नहीं बनाना चाहता।।

दुःख ही उसे पसंद, लिखा भाग्य में कष्ट है।
दरवाजे सब बंद, बदनसीब के भाग्य के।।

नहीं भाग्य में वेद, सिर्फ वेदना नियति में।
करने से बस खेद,कुछ भी मिलता है नहीं।।

कर अपना उपचार, छोड़ भरोसा आन का।
कर खुद का उद्धार, रहो संयमित अति सुखी।।

80- मन का वेग रुके नहीं। (दोहे)

मन का वेग रुके नहीं, कितना करो उपाय।
कभी नहीं यह मानता, जब तक देय डुबाय।।

राजा खुद को मानकर, करना चाहत राज।
खड्गसिंह बन चाहता, अपना अमिट स्वराज।।

पशुप्रवृत्ति से युक्त यह, पशुवत है व्यवहार।
राजपाट के हेतु यह, करता अत्याचार।।

सिंहासन पर बैठना, है इसको स्वीकार।
धन-दौलत-सम्मान को, करता अंगीकार।।

अहंकार-मद-दर्प में, रहता चकनाचूर।
बैठा रथ पर काम के, दौड़ रहा अति दूर।।

प्रबल वेग से घूमता, चाहत स्वेच्छाचार।
काया बनकर स्वयं ही, करता भ्रष्टाचार।।

मन-पशु में अपराध का, तना खड़ा शैतान।
बिना समाजीकरण के, यह दूषित हैवान।।

मन को समझाना कठिन, यह जड़ चेतनहीन।
बहता अपने वेग में, रुकना नामुमकीन।।

स्वस्थ अलौकिक भाव से, मन होता है साफ।
तब कहता मन विश्व से,मुझको कर दो माफ।।

शिक्षा अरु संस्कार से, मन का करो सुधार।
दीक्षित मन ही चाहता,जगती का उद्धार।।

81- अच्छा करना (तिकोनिया छंद)

अच्छा करना,
पावन चिंतन।
सुंदर रचना।।

धर्म प्रिय लगें,
हितवादी हो।
शुभ भाव जगे।।

नित प्रेम करो,
सत्कर्म करो।
सब कष्ट हरो।।

कपट त्याग दो,
मधुर राग दो।
द्वेष दाग दो।।

कभी नाच दो,
जगत साज दो।
हृदय माज दो।।

कर परिवर्तन,
रच दो नूतन।
हो संवर्धन।।

82- कंबलदान (दोहे)

कंबल बँटता देखकर, हरिहरपुरी प्रसन्न।
राजनीति यह वोट की, है चुनाव आसन्न।।

फोटोग्राफी हो रही, दाता अति खुशहाल।
पेपर में छप जायेगी,कल दाता की चाल।।

कंबल पा कर दीन भी, होता बहुत प्रसन्न।
दाता को दे डालता,सहज वोट का अन्न।।

दीन बड़ा जो कर रहा,दाता को मतदान।
एवज में मिलता उसे, बस कंबल का दान।।

छोटा समझ न दीन को, यह महान इंसान।
इसके बल पर हो रहा, है कंबल का दान।।

दाता कंबल बाँट कर, करत सदा अभिमान।
बलबूते पर दीन के, बनता सत्तावान।।

सत्ता सुख को भोगता, दाता अति बलवान।
दीन-हीन को ताक पर, रख करता अभिमान।।

83- ध्यान योग (चौपाई)

मन को केंद्रित एक जगह कर।
सारी दुनिया छोड़ चला कर।।
मन पंछी को मत उड़ने दो।
इसको एक जगह रहने दो।।

चंचल मन को स्थिर कर दो।
मन बहाव रोक कर रख दो।।
कभी न आगे बढ़ने पाये।
सबके आगे वह झुक जाये।।

मन की ऊर्जा एक जगह हो।
मन में सहज प्रकाश उदित हो।।
मन ऊर्जा ही भानु समाना।
योग वेदमय ज्ञान सुहाना।।

काम करे मन तत्परता से।
दूर रहे मन चंचलता से।।
स्थिरता में ध्यान छिपा है।
ध्यान योग में ज्ञान छिपा है।।

84- राष्ट्रवाद (दोहे)

समझ राष्ट्र को दिव्य घर,कर उसका सम्मान।
जाग राष्ट्र में नित सतत, कर उसपर अभिमान।।

राष्ट्र सहज सर्वोच्च है, रखना उसका ख्याल।
राष्ट्रवाद-मद पान कर, रहो सदा मतवाल।।

राष्ट्रधर्म का ध्यान रख, करो राष्ट्र से स्नेह।
सबसे बड़ा है राष्ट्र ही, हर मानव का गेह।।

सकल राष्ट्र की संपदा, को अपना ही जान।
इसकी रक्षा के लिए,सदा चले अभियान।।

राष्ट्रविरोधी शक्तियों, का मुँहतोड़ जवाब।
सदा राष्ट्र में स्वर्ग का, देखा करना ख़्वाब।।

राष्ट्र हितैषी बन चलो,करो राष्ट्र गुणगान।
नहीं राष्ट्र से है बड़ा, ऊपर का भगवान।।

राष्ट्रजनों को स्वजन कह, राष्ट्र मधुर समुदाय।
एक दूसरे से मिलो,बनकर चलो सहाय।।

मिलजुल करना काम है, सुख अरु दुःख को बाँट।
अपनेपन के भाव से, दुर्भावों को पाट।।

सैनिक बन लड़ते रहो, दुश्मन को ललकार।
वीरभूमि प्रिय राष्ट्र से, करो अहर्निश प्यार।।

85- देहवाद (चौपाई)

देह घटक है इस जीवन का।
लौकिक यह वट जग उपवन का।।
यह साधन है सर्व कर्म का।
पालनकर्त्ता नियम धर्म का।।

देह नहीं तो काम नहीं है।
देह बिना प्रभु राम नहीं हैं।।
बिना देह यह लोक लुप्त है।
सारी धरती स्वयं सुप्त है।।

दृश्यमान यह सारा जग है।
जब तक इस शरीर का पग है।।
स्थावर जंगम सब कायामय।
लौकिक दृश्य-वेश अति सुखमय।।

इसी देह पर टिका सर्व है।
यह अंतस का लोक पर्व है।।
सभी इंद्रियों का यह घेरा।
मन उर बुद्धि आत्म का डेरा।।

यही पिण्ड प्रतिनिधि मण्डल है।
भौतिकधारी लौकिक बल है।।
देता यह अभिव्यक्ति सकल की।
यही सहज संपदा व्यक्ति की।।

दोहा-

देहवाद इस जगत में, करता सदा कमाल।
धर्म कर्म अरु भोग का, यह संकाय विशाल।।

86- आत्मवाद चालीसा

आत्मवाद ही ब्रह्मवाद है।
यह सर्वोत्तम ज्ञानवाद है।।
आत्मा अंतिम चरण ज्ञान का।
यह अत्युत्तम वरण ध्यान का।।

आत्मा अजर अमर अविनाशी।
चेतन अमल सहज सुखराशी।।
परम तत्व यह अगम अगूढ़ा ।
प्रिय नवीनतम अतिशय बूढ़ा।।

सदा प्रसन्न एक रस रसमय ।
यशोधरी यश सरसिज यशमय।।
महत तत्व अति दिव्य कुलीना।
सदा त्यागरत विज्ञ प्रवीना।।

ज्ञान निधान सुजान सुरीली।
सतरंगी रंगीन छबीली।।
प्रेमस्वरूप प्रेमप्रिय विह्वल।
लोकातीत समुन्नत निर्मल।।

एकांती एकांत धरोहर।
अतिशय सिद्ध प्रसिद्ध मनोहर।।
शीतल चंदन तरुवर नीरा।
कोमल वदन सुधाम शरीरा।।

दिव्यलोकवासी सुकुमारी।
जग की पीड़ा हरती सारी।।
नहीं किसी से याचन करती।
अतिशय मधुमय वाचन करती।।

अति तन्मय तल्लीन ज्ञान श्री।
परम रम्य मुस्कान मधुर श्री।।
ज्ञानवती युवती अति योधा।
आत्मा नाम राम शिव बोधा।।

विद्युत सदृश चमकत चमचम।
अति विनम्र साधु सम नम -नम।।
भक्ति रसामृत सुधा कलश सम।
सहज ध्यान सम्मान फलद अम।।

आत्माराम ज्ञान गुणसागर।
ब्रह्मवाद सिद्धांत शिवाधर।।
आत्मविवेचक स्वयं आत्मवत।
प्रीति रीति सम्मति शुभ प्रियवत।।

सहज सरोज सलिल सम शोभित।
अतिशय शुभ्र शान्त सुख लोभित।।
परम दयालु कृपालु दीन की।
बनी कामना तुम्हीं जगत की।।

दोहा-

आत्मा ही सर्वस्व है, आत्मवाद ही सत्य।
आत्मा में जो रम गया,वही जगत में स्तुत्य।।

87- जीवन चालीसा

बहते जाओ पानी बनकर।
दिख अति दिव्य कहानी बनकर।।
सबको सींचो हरित क्रांति ला।
सारे जग में प्रेम शांति ला।।

तृप्त करो सारी जगती को।
सिंचित कर जमीन परती को।।
प्यासे की नित प्यास बुझाओ।
अन्न दान कर भूख मिटाओ।।

सारे जग का जीवन बन जा।
फलदायक तरु उपवन बन जा।।
कोई कोर-कसर मत रखना।
मध्य धार में बहते चलना।।

तट को रखना सदा सुरक्षित।
रहो तटों के मध्य सुशोभित।।
चलते रहना सतत संयमित।
जलाकार बन किन्तु नियंत्रित।।

पाठ पढ़ाओ नीरा बनकर।
भक्ति सिखाओ मीरा बनकर।।
पानीदार बनो अंतस से।
बचकर रहना सदा बहस से।।

आँसू से कह गीत बने अब।
दीन-हीन का मीत बने अब।।
करुण -नीर की संस्कृति अब हो।
मानवता की सद्गति अब हो।।

नीर दीवान रहे प्रीति का।
दिखे हर तरफ मधुर गीतिका।।
सजल नेत्र का अब बसंत हो।
कटु भाषा का दुःखद अंत हो।।

जिह्वा से अमृत वर्षा हो।
मधुर वचन की उत्कर्षा हो।।
चेहरों पर मुस्कान दिखे अब।
शाकाहारी गान सुनें अब।।

नीर बहे अब अमृत बनकर।
सारी दुनिया को अमृत कर।।
हर दिन पावन दिन बन जाये।
प्रति पल हार्दिक पर्व मनायें।।

बिना थके अब बहना होगा।
निष्कामी बन चलना होगा।।
अब शोभित नीरज बन जाओ।
धरती को रंगीन बनाओ।।

दोहा-

जीवन जग को दान कर,रहना सीखो मस्त।
करते रहना रात-दिन, विकृतियों को पस्त।।

88- चिंतन चालीसा

नित नव नूतन चिंतन करना।
पावन बन हरिकीर्तन करना।।
हिय में सुंदर भाव भरा हो।
मन का दूषित भाव मरा हो।।

चिंतन में शुचिता को लाओ।
सबमें संवेदना जगाओ।।
चिंतन में हो वस्तुनिष्ठता।
अति प्रामाणिक नियमवद्धता।।

सर्वगुणी सबका हित साधक।
सकल विश्व का हो आराधक।।
सबके चरणों का अनुरागी।
सदा समर्पण भाव विरागी।।

सभी प्राणियों का हो रक्षक।
हितवादी व्यापक संरक्षक।।
सबके प्रति हो हिय में ममता।
जन-जन में आध्यात्मिक समता।।

लोकलुभावन नित चिंतन हो।
चिंतन में मानव वंदन हो।।
वंदनीय हो प्रिय अभिनन्दन।
अभिनन्दन में शुभमय चंदन।।

चिंतन में प्रिय शिव वादन हो।
सकल लोक का अभिवादन हो।।
स्वागतेय हों सारे मानव।
सदा वहिष्कृत हों सब दानव।।

सारे दानव मरणप्राय हों।
मानवता का अभिप्राय हो।।
स्थिर दिव्य शुभद चिंतन हो।
अति फलदायक शिव नर्तन हो।।

चिंतन-मनन चले दिन-राती।
सकल जगत हो रघु बाराती।।
सर्वमङ्गला दिखें सर्व में।
रामोच्चारण चले गर्व में।।

नैसर्गिक आनंद चाहिये।
शुभ चिंतनअभिनन्द चाहिये।।
ज्ञान गुरुत्व दिखे चिंतन में।
सकल जहां केंद्रित हो मन में।।

परम पवित्रता का आलय हो।
गन्दा-विकृत भाव प्रलय हो।।
सात्विकता में विचरण करना।
अग-जग का एकत्रण करना।।

दोहा-

पावन चिंतन नित करो,हरो विश्व का खेद।
पढ़ते रहना रात-दिन, मानवता का वेद।।

89- मोहन चालीसा

सबको वश में करते रहना।
प्रेम पंथ पर नियमित चलना।।
मन में कपट कभी मत रखना।
सुंदरता को स्थापित करना।।

मद मत करना दर्पमुक्त बन।
सदा रहे अपना निर्मल मन।।
आगे-आगे प्रेम समंदर।
एक बूँद इश्क़ का सुंदर।।

सीखो सबको बड़ा समझना।
मानववादी बने थिरकना।।
सच्चाई की राह पकड़ना।
सुंदर नियम बनाकर चलना।।

सहयोगी सबका बन जाओ।
साथ-साथ रह काम कराओ।।
लगे सभी को तुम अपने हो।
नित प्रत्यक्ष नहीं सपने हो।।

सबके मन में रच-बस जाना।
कर देना सबको दीवाना।।
रहे न कोई कभी पराया।
करते रहना सब पर छाया।।

सम्मोहन का मंत्र एक हो।
सकल इरादे सदा नेक हों।।
पाप न आये कभी हृदय में।
पुण्य भावना सदा हृदय में।।

सहज भाव का सतत संचरण।
शीतलता का चन्द्र-आवरण।।
स्नेहिलता का संस्पर्शन हो।
मृदुल भाव का शिव दर्शन हो।।

प्रीति भाव की रहे खुमारी।
मोह रूप में रहें मुरारी।।
पूरी ताकत से सेवा कर।
चक्र लगाओ बनकर मधुकर।।

दीवाना बन मानवता का।
परिचय देना मधुमयता का।।
काया बनकर नहीं नाचना।
आत्मरूप से करो याचना।।

सदा बीज से वट बन जाना।
घृणा त्यागकर नट बन जाना।।
रीझे दुनिया तुझसे खुश हो।
सारा जगत तुम्हारे वश हो।।

दोहा-

मोहित करने की कला, जानत दिव्य सुजान।
मधुर मनोहर शुचि हृदय, में मोहन श्री मान।।

90- वृद्ध-वृद्धाश्रम चालीसा

बूढ़ों का यह शरणालय है।
वयोवृद्ध का देवालय है।।
जिसका घर में नहीं ठिकाना।
उसका यह है गेह सुहाना।।

वृद्ध निराश्रित का पावन घर।
बेघर का यह प्रिय अमृतसर।।
सदा निराश्रित का यह आलाय।
बूढ़े लोगों का देवालय।।

यहाँ तिरष्कृत बूढ़े रहते।
अपना जीवनयापन करते।।
यह सन्यासी का दीक्षा घर।
चौथेपन का यह करुणाकर।।

वृद्धाश्रम पावन करुणाश्रय।
वृद्धों का यह अंतिम आश्रय।।
वृद्धाश्रम प्रिय स्वर्गधाम है।
बूढ़ों का यह मोक्षधाम है।।

घर ही जिसको लगें समस्या।
वृद्धाश्रम में करे तपस्या।।
भोजन-भजन करे आश्रम में।
चित्त लगाये सदा धरम में।।।

वृद्धों का सम्मान जहाँ है।
नित रमते भगवान वहाँ हैं।।
वही पुनीत भूमि शिव लोका ।
जहँ रहते हैं वृद्ध अशोका।।

साधु सदृश वृद्धों को मानो।
देव स्वरूप उन्हें पहचानो।।
जो वृद्धों का पूजन करता।
ईश्वर संग विचरता रहता।।

वृद्धों का अभिवादन करना।
वृद्धाश्रम का धर्म समझना।।
वृद्धाश्रम का मतलब यह है।
सब देवों का संगम यह है।।

समझ वृद्ध को सत्य सामना।
प्रेमरूपमय प्रिय भगवाना।।
वृद्धों को निष्कामी जानो।
उनका दिव्य रूप पहचानो।।

वृद्धों का नित दर्शन करना।
चरणकमल का स्पर्शन करना।।
झुक कर आशीर्वाद माँगना।
सुप्रभात कह ध्यान लगाना।।

दोहा-

वृद्धों की पूजा करो, सेवा करना रोज।
उनका आशीर्वाद ले,जग में बनो सरोज।।

91- निर्भय चालीसा

सच्चा हो तो किस से डरना।
निर्भय हो कर नित्य विचरना।।
सत्य पंथ को दो आमंत्रण।
जीवन का हो स्वस्थ नियंत्रण।।

गलत काम से डरते रहना।
सही कर्म का पालन करना।।
गलत राह से भय लगता है।
जिसको वह उत्तम बनता है।।

संयम से जो जीवन जीता।
निर्भयता की हाला पीता।।
जिसके जीवन में संयम है।
उससे डरता रहता यम है।।

आत्मनियंत्रण बहुत लुभावन।
आत्मसंयमित जीवन सावन।।
जिसके भीतर पाप भरा है।
भय के कारण सदा मरा है।।

पुण्यार्जन करते रहना है।
पंछी बन उड़ते रहना है।।
छू देना आकाश अतल को।
पहुँचो सूर्य प्रकाश पटल को।।

भयाक्रांत जीवन दुःखदायी।
निर्भयता अति प्रिय सुखदायी।।
निर्भयता को मित्र बनाओ।
अपना जीवन सहज सजाओ।।

भय में दुश्मन छिपा हुआ है।
निर्भयता में मित्र छिपा है।।
निर्भय बनकर राज रजाओ।
सुख-अमृत का भोग लगाओ।।

भाग्योदय जब भी होता है।
निर्भय-बीज मनुज बोता है।।
निडर बना डटकर रहता है।
सच्ची बात किया करता है।।

अच्छा-सच्चा-भला बनोगे।
रोगमुक्त निर्द्वन्द्व रहोगे।।
भयाक्रांत हो भय भागेगा।
हो निर्भीक मनुज जागेगा।।

निर्भय चालीसा अति पावन।
मन को करता दिव्य सुहावन।।
जो यह चालीसा पढ़ता है।
शांत सुशील अभय बनता है।।

दोहा-

निर्भयता में शान्ति है,सुख वैभव आराम।
निर्भय मानव-मन सहज, पाता है विश्राम।।

92- उत्तम मानव (चतुष्पदी)

उत्तम प्राणी देव समाना।
कभी नहीं करता मनमाना।।
सद्भावों का वह सागर बन।
दृश्यमान अतुलित निधि नाना।।

दिव्य पुरुष प्रिय विद्यालय है।
परम हितैषी करुणालय है।।
अति सहयोगी परम दयालू।
सन्त महात्मा शिव-आलय है।।

दिव्य धाम का मोहक नायक।
इस पृथ्वी का सबसे लायक।।
अति निरपेक्ष मधुर सलिला जिमि।
मधु संवादवाद अधिनायक।।

कर में सुमन लिये चलता है।
हाथ जोड़ विनती करता है।।
मानव बनना सीख सभी लें।
शुभ सन्देश दिये फिरता है।।

नहीं किसी से याचन करता ।
उपदेशों का वाचन करता।।
स्वयं पहन कविता की माला।
मधुर गीत का गायन करता।।

93- मन का मीत (चतुष्पदी)

मन का मीत अगर मिल जाये।
जीवन पुष्प सहज खिल जाये।।
मन-उर में उत्साह बढ़ेगा।
सारी विकृतियाँ हिल जायें।।

मन का मीत सहज सुंदर हो।
बौद्धिक मानव दिव्य प्रखर हो।।
सत्यनिष्ठ अतिशय प्रिय न्यायी।
प्रेमाधीन अनूप सुघर हो।।

न्याय पंथ का नित अनुगामी।
ज्ञान विशुद्ध विवेक सुगामी।।
कर्त्तापन का भाव नहीं है।
अति व्यापक सर्वत्र सुनामी।।

शुद्ध भावमय कपटहीन नर।
मन का मीत रहे अति प्रियतर।।
दर्पहीन पावन मनमोहक।
अति प्रिय भावुक सहज मनोहर।।

कूट-कूटकर पारदर्शिता।
नृत्य कर रही नित नैतिकता।।
समता का पावन अभिमन्त्रण।
मस्तक पर हों तिलक-देवता।।

94- सद्गति (दोहे)

सद्गति मिलती है तभी,जब हो सुंदर चाल।
सत्कर्मों से ही सहज,विपदाओं को टाल।।

सद्गति -शुभगति क्षितिज ही, इस जीवन का लक्ष्य।
सहज सुखद परिणाम ही, सद्गति का है तथ्य।।

मुक्ति मंत्र के जाप में, सद्गति की है राह।
सद्गति पाने के लिये, रखो मोक्ष की चाह।।

कर्म करो निष्काम हो, यह सद्गति की नीति।
सत्य आचरण में छिपी, सद्गति की है रीति।।

धर्मयुधिष्ठिर बन निकल, करना धर्म प्रचार।
इसी पंथ से है जुड़ा, प्रिय सद्गति का तार।।

इसी अवस्था के लिये, रहना सतत सचेत।
सद्गति पाता वह नहीं,जो रहता निश्चेत।।

सद्गति सुंदर भाव का, सत्य दिव्य परिणाम।
सद्गति मधुर स्वभाव का, अति शीतल है नाम।।

95- दिव्य भाव चालीसा

दिव्य भाव की करो कामना।
कर ईश्वर से यही याचना।।
दिव्य भाव अति पावन सरिता।
बूँद-बूँद में अति प्रिय कविता।।

देव शक्ति है दिव्य भाव में।
नैसर्गिकता सहज चाव में।।
दिव्य भाव में अमृत सागर।
दिव्य भाव प्रिय अमृत नागर।।

दिव्य भाव को पवन समझना।
सदा धर्मरत शीतल बहना।।
यह मानवतावादी पावन।
ब्रह्मलोक तक सहज लुभावन।।

देव मनुज सबका हितकारी।
दिव्य भाव ही प्रेम पुजारी।।
ब्रह्म विचरते दिव्य भाव में।
निर्विकार नित मधु स्वभाव में।।

दिव्य भाव के ब्रह्म रचयिता।
इसमें निर्मलता शुभ शुचिता।।
भरा हुआ जो दिव्य भाव से।
आच्छादित वह सुखद छाँव से।।

जिसके मन में गंगा बहतीं।
उस में दिव्य भावना रहती।।
जिस को सद्विवेक मनभावन।
उस में दिव्य भाव का आवन।।

अडिग प्रेम में दिव्य भावना।
प्राणि मात्र की शुभद कामना।।
जिस के भीतर सत्व प्रीति है।
दिव्य भावनामयी रीति है।।

दिव्य भाव में नित्य दान है।
नैतिकता का सत्य ज्ञान है।।
यह प्रिय दाता सहज सन्त सम।
देव तुल्य यह भाव परम नम।।

दिव्य भाव है सब से ऊपर।
बाधाओं से मुक्त उच्चतर।।
यह निसर्ग का देवालय है।
शुभग मनोहर विद्यालय है।।

पावन मन का भाव यही है।
शुद्ध हृदय का गाँव यही है।।
सकल विश्व मैत्री का देशा।
दिव्य भाव सर्वोच्च विशेषा ।।

दोहा-

दिव्य भाव के धाम में,ईश्वर का सहवास।
दिव्य भावनायुक्त नर,सदा ईश के पास।।

96- जल्दी जल्दी… (चतुष्पदी)

जल्दी जल्दी मिलते रहना।
रस की धार बहाते रहना।।
मत करना संकोच कभी भी।
आना निश्चित आते रहना।।

आ कर दिल में तुम छा जाना।
दिल से दिल को खूब लगाना।।
किसी बात की चिंता मत कर।
मीठे-मीठे बोल सुनाना।।

जल्दी आओ देर न करना।
उर में क्रमिक उतरते रहना।
मत करना परवाह किसी की।
केवल मेरे पास विचरना।।

दिल की सब बातें कह डालो।
मनोरोग को कभी न पालो।
मनमोहन का मंत्र जाप कर।
सारी बाधाओं को टालो।।

मेरा तेरा साथ रहेगा।
आजीवन सहवास रहेगा।।
जलनेवालों को जलने दो।
अत्युत्तम रनिवास रहेगा।।

97- प्रेमी! पागल… (सजल)

प्रेमी! पागल मत बन जाना।
फूँक-फूँक कर कदम बढ़ाना।।

सभी नहीं दुनिया में प्रेमी।
धीरे चल चींटी बन जाना।।

जग विश्वास खो रहा अब है।
रुक-रुक करके पैर जमाना।।

धोखेबाज खड़े चौतरफा।
आगे-पीछे होते जाना।।

अति विश्वास कभी मत करना।
सोच-समझकर आगे जाना।।

वफादार का अब टोटा है।
कभी न जल्दी हिल-मिल जाना।।

मकड़जाल है विछा चतुर्दिक।
कभी जाल में फँस मत जाना।।

माना कि तुम प्रेम रसिक हो।
फिर भी सँभल-सँभल कर जाना।।

कभी न सोचो सभी प्रेममय।
कभी न झाँसे में तुम आना।।

पहले लेना घोर परीक्षा।
ठोक-बजाकर चित्त चढ़ाना।।

कामुक घूम रहे पशु बनकर।
इनसे पीछा सदा छुड़ाना।।

कामवासना प्रेम नहीं है।
इस रहस्य को सतत जानना।।

प्रेमी को बस प्रेम चाहिये।
वह तो आशिक़ प्रेम दीवाना।।

प्रेम दीवाने राधे-कृष्णा।
इसी भाव को सदा जगाना।।

सत्व भाव में सत्य प्रेम है।
सात्विक प्रेमी को अपनाना।।

98- प्यारा मीत (सजल)

मुझको प्यारा मीत चाहिये।
उर मोहक संगीत चाहिये।।

प्रिय भावों में मधुर लालिमा।
होठों पर मधु गीत चाहिये।।

कंचन काया पावन छाया।
प्रेम रसिक मनमीत चाहिये।।

मुझको पाने को हो विह्वल।
प्रेम कलश सा मीत चाहिये।।

मीत सहज हो बहुत छबीला।
उर प्रेरक अभिजीत चाहिये।।

मन में आकर सदा समाये।
गीतकार मधु गीत चाहिये।।

कभी न दो की रेखा खींचे।
ब्रह्म रूप रघुसीत चाहिये।।

पय सा स्वच्छ परम प्रिय निर्मल।
सुरभित नित नवनीत चाहिये।।

मेरा प्यारा अति खुशदिल हो।
मुस्कानों का मीत चाहिये।।

समझदार प्रिय शिव सदृश हो।
कल्याणी गुरुमीत चाहिये।।

साथ निभाये हर स्थिति में।
दिल लायक हममीत चाहिये।।

99- तुझे बुलाता,… (सजल)

तुझे बुलाता प्यार हमारा ।
करता है इजहार तुम्हारा।।

आना अथवा मत आना तुम।
अंतिम निर्णय सिर्फ तुम्हारा।।

जीवन दान दिया बस तुझको।
मन में अंकित नाम तुम्हारा।।

लेकर नाम यही कहना है।
हो रोशन बस नाम तुम्हारा।।

तुम हो मेरी प्रेम कल्पना।
एक नाम का सिर्फ सहारा।।

छिपा हुआ है रूप नाम में।
रूपवान तुम प्रणाधारा।।

चला करेगा जीवन यूँ ही।
यह जीवन है सिर्फ तुम्हारा।।

छोड़ दिया है सब कुछ तुझ पर।
तुझ पर ही है सर्व हमारा।।

जीना है तेरी खुशियों में।
तू ही प्यारा पर्व हमारा।।

100- खुशियों का संसार (चौपाई)

खुशियों का संसार दिला दो।
सुंदर सा दिलदार दिला दो।।
प्यारा सा परिवार दिला दो।
प्रिय मादक रसधार पिला दो।।

मन को अब कर दो रंगीला।
नाचे भीतर छैल-छबीला।।
प्रेमी का दरबार दिला दो।
सद्गति का अधिकार दिला दो।।

मेरे भीतर बैठे रहना।
दिल में घुलकर चलते रहना।।
मुझको मेरी प्रीति दिला दो।
मधुर प्रेम की रीति सिखा दो।।

अपना अद्भुत रूप दिखाओ।
मोहक सुंदर राग सिखाओ।।
रूप मधुर प्रिय अब आजाओ।
दिल में अमी सरस बरसाओ।।

करो प्रतिज्ञा आना ही है।
प्रीति रहस्य बताना ही है।।
मुझ से कुछ भी नहीं छिपाना।
सत्य प्रेम का मर्म सिखाना।।

Language: Hindi
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