5. इंद्रधनुष
सात रंग होते थे तुम्हारे जबकि बात मैं कहता हूँ,
हो गए होंगे अनंत शायद मुझको अब ये लगता है;
एक बार जो देख लिया था मैंने रंग ज़माने का,
इंद्रधनुष भी तब से जाने क्यूँ फीका सा लगता है।
तुम चाहो तो फूलों के अंबारों को धूल बना दोगे,
तुम चाहो तो खुशियों में ग़म छलका दोगे;
जाने तुम्हारा हर एक शब्द क्यूँ झूठा सा लगता है,
इंद्रधनुष भी तब से जाने क्यूँ फीका सा लगता है।
मैं रंग हजारों लेकर भी बेरंग हुआ हूँ तेरे लिए,
मैं धूल से फूल खिलाकर भी बेज़ार हुआ हूँ तेरे लिए;
तेरे लिए जीना भी जाने अब क्यूं मरना सा लगता है,
इंद्रधनुष भी तब से जाने क्यूँ फीका सा लगता है।
सुबह की पहली किरणों सा तू रोज़ कहीं खो जाता है,
मैं शाम को तेरे होने की आहट की राह तलाशता हूँ;
अब शाम सवेरे होकर भी घर क्यूँ सूना सा लगता है,
इंद्रधनुष भी तब से जाने क्यूँ फीका सा लगता है।
छोड़कर राह ‘ घुमंतू ‘ ये, चलपर फिर किसी ओर को रे;
ये जीवन जीने का दर्पण, जाने क्यूँ टूटा सा लगता है,
इंद्रधनुष भी तब से जाने क्यूँ फीका सा लगता है।
~राजीव दुत्ता ‘घुमंतू’