(25) यह जीवन की साँझ, और यह लम्बा रस्ता !
यह जीवन की साँझ, और यह लम्बा रस्ता !
शैशव में आदर्शो की गठरी सर माथे,
यौवन में कर्तव्यबोध, उल्लास भगाता,
घिसी-पिटी राहों पर चलने की मज़बूरी,
और उमंगें सत्वहीनता से पदमर्दित ।
क्षमताओं, साधनों, परिस्थितियों
में कैसी यह घोर विषमता ?
यह जीवन की साँझ और यह लम्बा रस्ता !
जो गुरुवों ने, पितृजनों ने समझाया , सब झूँठा निकला
फिर भी झूंठे आदर्शों को छोड़ सके क्या ?
मूलभूत जो नियम, नींव जो हैं समाज के
उनसे ही सब छले नहीं हैं गए यहाँ क्या ?
कीट पतंगे सदा नियम जालों में फँसते
मकड़जाल क्या बाँध किसी हाथी को सकता ?
इससे तो वह ‘मत्स्य न्याय’ ही ज्यादा अच्छा
प्रकृति नियम पहचान हिरन संतोष मानता
किसी “शेर से छला गया”— यह दुःख न होता ।
यह जीवन की साँझ, और यह लम्बा रस्ता !
सम्बन्धों की सहज नींव– बस एक अटल विश्वास ,
और इसी विश्वास की जड़ में छिप हुआ विष-वास ।।
दोषी कौन कौन निर्दोषी , कौन सका पहचान ?
हर निश्छल मन को कुरेद कर ढूंढा जाता स्वार्थ ।
अस्थिर सदा प्रेम बुनियादें , ज्यों पानी पर लेख
झूँठा झूँठा बस झूँठा है कथित प्रेम-आधार ।।
“चाहों का कोई जाल नहीं था “– क्यों कोई विश्वास करे ?
झूँठे आरोपों को सहते तन मन सारा टूट चुका अब
अब तो अंतिम नींद पास आ , तेरा आलिंगन ललचाता
जीवन की यह साँझ और यह लम्बा , कितना लम्बा रस्ता !।
स्वरचित , मौलिक ( kishoreveena.blogspot से )
रचयिता : (सत्य) किशोर निगम