4.माँ तुम बिना सारा जग सूना
4.मांँ तुम बिन सारा जग सूना
चली गई हो मांँ तुम जबसे ,
सारा जग सूना लगता है ।
नहीं जानती क्या थीं मांँ तुम,
नहीं कोई अपना लगता है ।
मांँ होती थी तब उस घर में ,
रोबीले पापा होते थे ।
प्रेममयी दादी होती थी ,
गर्वीले चाचा होते थे ।
मांँ होती थी तब उस घर से ,
बहुत गहन रिश्ता होता था।
मांँ होती थी तब उस घर में,
लाड़-प्यार कितना होता था ।
भाई – बहन साथ होते थे ,
सब सुख – दुख साझा होता था।
कोई कमी नहीं खलती थी ,
मन अपना राजा होता था ।
मांँ होती थी तब उस घर में,
एक घड़ौची भी होती थी ।
जहांँ रखा मटका होता था ,
पानी की टंकी होती थी ।
मांँ होती थी तब उस घर में ,
लिपा – पुता चौका होता था ।
चौके में चूल्हा होता था ,
फुंँकनी , चिमटा भी होता था ।
बटलोई में दाल उबलती ,
भात पतीले में पकता था ।
बनती , कढी़ पकौड़ी वाली ,
छाछ पड़ोसन से मिलता था।
मिट्टी के कल्ले पर रोटी ,
सिकती,होती फूल सरीखी।
छप्पन भोग निछावर उस पर,
मांँ का प्यार जहां पलता था ।
चाचा, बुआ, ढेर से बच्चे ,
सदा छुट्टियों में होते थे।
नहीं लड़ाई , बच्चों में भी ,
साथ- साथ जगते सोते थे ।
लंबी-लंबी गर्म दुपहरी ,
कुल्फी ,सोडा ,बर्फ मलाई।
रद्दी बेच मिले पैसों से,
बच्चों की दावत उड़ती थी ।
मेहमानों के घर आने पर,
मालपुआ पूरी छनती थी।
दही- बड़े की प्लेट साथ में ,
भजिए ,रबड़ी भी बनती थी।
छककर सभी मजे लेते थे,
पंखा एक चला करता था ।
गर्मी की उजली रातों में ,
आंँगन में सोना होता था ।
मांँ होती थी सब होता था ,
सारा जग अपना होता था ।
जेठ दुपहरी शीतल लगती ,
जब मांँ का आंँचल होता था ।
शिशिर काल की ठिठुरन में भी ,
मद्दिम धूप सरीखी मांँ थी ।
युवा काल की उलझन में भी ,
मेरी सखी सहेली मांँ थी।