2) भीड़
“भीड़”
मन को अकेला
जब हम पाते हैं
अकेलापन दूर करने
भीड़ में चले जाते हैं ।
भीड़ का हिस्सा तो
जरूर बन जाते हैं
पर भीड़ में तो
मन को अकेला ही पाते हैं ।
झूठे आकर्षण में
खुद को बहलाते हैं,
बस कुछ पल को
भीड़ में खुद को टहलाते हैं ।
*
आवाजों की गूंज होती है
जहाँ भीड़ होती है,
आपा-धापी होती रहती है
जहाँ भीड़ होती है,
महफिल में रौनक के लिए
भीड़ जरूरी है,
तालियों की गरगराहट के लिए
भीड़ जरूरी है,
यदि कहीं भीड़ हमारे लिए
दवा का काम करती है,
तो कहीं यही भीड़ हमें
तकलीफ भी देती है ।
हमसे ही तो भीड़ होती है
फिर भी खुद को
भीड़ का हिस्सा बनने से
कहाँ रोक पाते हैं ।
–पूनम झा ‘प्रथमा’
जयपुर, राजस्थान
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