2) “काग़ज़ की कश्ती”
“आज कुछ बचपन की यादें जो सब के दिलों दिमाग़ में हमेशा रहती हैं उसका ज़िक्र करते हैं” जैसे….
“याद आई छोटी छोटी बातें,
वो बचपन की यादें।
समय था वो प्यारा,
बच्चों का बचपन,
आज भी यादों में है न्यारा”
शीर्षक-“काग़ज़ की कश्ती”
“काग़ज़ की कश्ती”है तो क्या ?
सम्भाल कर रखना,हे दोस्तों…
यादों का परवाना,तलातुम का सहारा,
यह काग़ज़ की कश्ती,वो बचपन का ख़ज़ाना।
याद है वो ज़माना…
पन्ना जो किताब का,खिलोना था बरसात का, काग़ज़ की कश्ती,हिसाब था।
क्यूँकि..
(मोड़ तरोड़ कर भी काग़ज़ को जोड़ पाए)
वो बारिश की बूँदे,मेघों का बरसना,
छप छप करते,पानी में खेलना,
काग़ज़ की कश्ती को धकेलना,
पानी में छप छपाते,पाँव रखना,
चंचल था मन,हँसना और हँसाना,
कभी न भुलाना…
काग़ज़ की कश्ती,वो बचपन का ख़ज़ाना।
धुंधली न करना,वो यादें,
गलियों और चोबारों के नाते,
आकाश में टिम टिमाते तारों से करते थे बातें,
बरसाती फुहारों के दिन और रातें,
बादलों में छिप कर आते,
बारिश की बूँदों के मोती,
जल की धारा संग,इठलाते और लहराते,
काग़ज़ की कश्ती संग,
बच्चों की किलकारियाँ,बयाँ कर जाते।
कभी ना भुलाना…
काग़ज़ की कश्ती,वो बचपन का ख़ज़ाना।।
पवित्रता की दृष्टि,महफ़ूज़ सी लागे,
काग़ज़ की कश्ती गर मन में जागे।
क्यूँ न एक उम्मीद जगाएँ…
काग़ज़ की कश्ती को नाव बनाएँ,
चलते चलें और चलाते जाएँ।
मोड़ तरोड़ कर भी काग़ज़ को जोड़ पाएँ,
समझदार हो गये तो क्या…
बचपन सा निर्मल समय फिर लाएँ।
कभी ना भुलाना…
काग़ज़ की कश्ती,वो बचपन का ख़ज़ाना।।
✍🏻स्व-रचित/मौलिक
सपना अरोरा।