17. बेखबर
इंतहाँ चाहत की तुम्ही से ना होगी क्यूँ मगर,
इश्क के गलियारों में बिखरे हैं सपने दरबदर;
ना देखो तुम मुझे अश्क में डूबे इस कदर,
नज़र – नज़र में देखे हैं मैंने ज़िंदगी के सब पहर;
चाँद ढल गया आधी रात और सूरज रहा बेखबर।
इधर उधर की बात रख, नज़र मिला उसी से तू,
जो तेरा बनकर बैठा है, बस तुझे ना आए नज़र;
सूरतें रुकसत होती रहीं हैं होती रहेगी हर दफा,
हृदय में एक अंकुर हुआ है, मंजिल जिसकी आदिम सफर;
चाँद ढल गया आधी रात और सूरज रहा बेखबर।
जो आब भी ना धो सके, वो दाग है बेवफाई,
खुशियों की चादर लपेटे राज़ दफन है तनहाई;
महबूब की खातिर हर सांस में दुआ पढ़ते घुमंतू कभी,
इश्क किसी का हो ना सका, ज़माने ने घोला ऐसा ज़हर;
चाँद ढल गया आधी रात और सूरज रहा बेखबर।
~राजीव दत्ता ‘घुमंतू’