14. आवारा
हूँ खड़ा मैं नदी का किनारा,
तन्हा अधमरा बोझिल बेचारा,
बेलों के घने कुछ गुच्छे
झूलकर देते दो पल सहारा।
डूबते किनारों को राह दिखाते हैं,
चटकते पहाड़ दरखते दोबारा,
मन का सारथी राह भटकता रहा,
नभ में ना आया कोई ध्रुव तारा।
रात काली गाढ़ी ठंडी
जैसे कोई आदिम पगडंडी,
अनंत पथ पर बेपथ तारें और
वो चाँद कोई नश्वर आवारा।
बेबस बादल बाहें बांधे
कहते चले करुन काव्य-धारा,
साँझ की दो पथराई आंखे
करती क्लांति का मद्धम इशारा।
सागर सरोवर सब पथ भूलकर,
आ मिलती है जब सहस्त्र धारा,
राहत की साँसें प्रचंड वेग धर,
गरजती हैं बन जयघोष का नारा।
फिर होता है नवजागरण,
बहती है प्रेम की अश्रु धारा,
तब कहीं मरता है निशाचर मन,
और जी उठता है चित्त आवारा।।
~राजीव दुत्ता ‘घुमंतू’