10. जिंदगी से इश्क कर
ये आंक बांक झांककर गली के मोड़ ताककर,
निकल पड़े हैं के कभी ना आयेंगे फिर इधर,
ढलते सितारे देखकर कर चुके शुरू नया सफर,
सारे नज़र उन्हीं पर हैं जो भागे दिन और दोपहर,
लेकर दिल कोरे हाथों में कभी तेरे शहर मेरे शहर,
सिफर की बात भूलकर, ओ मुसाफिर, जिंदगी से इश्क कर।
पिंजरे से तू ना निकल हसीन ख्वाब पालकर,
दुनियादारी की दुकान पर बिकते हैं सपने टूटकर,
गम नहीं जो टूटे खुद फिसल या हाथ छूटकर,
मगर जो रखे हैं सहेजे तोड़े जायेंगे इश्क के नाम पर,
शायद तभी फिर मिलें बिखरे दिल लिए पुराने शहर,
सिफर की बात भूलकर, ओ मुसाफिर, जिंदगी से इश्क कर।
गांव की सरहद लांघने से पहले वाले मोड़ पर,
अनुभव के गुच्छे बैठें हैं दल में अकेले मुठ्ठी भर,
कुछ की नजरें हैं तलाशें खुद का पिंजरा गांव में,
कुछ की पलके हैं सजाती ख़्वाब शून्य आकाश पर,
सब के सब बस हैं सताए चाहें पूर्णता एक क्षण भर,
कहे घुमंतू सब है सिफर, ओ मुसाफिर, जिंदगी से इश्क कर।।
~राजीव दुत्ता ‘घुमंतू’