“तेरे गलियों के चक्कर, काटने का मज़ा!!”
है ये आशिक़ बने,
सोशल मीडिया पे जो।
इनको क्या हो पता,
आशिक़ी की सजा।।
अब ये समझेंगे क्या,
आज के छोकरे।
तेरे गलियों के चक्कर,
काटने का मज़ा।।
तू खड़ी रहती घण्टों,
दरवाजे पकड़।
रहते खामोश लब पर,
थी नज़रो में रजा।।
अब ये समझेंगे क्या,
आज के छोकरे।
तेरे गलियों के चक्कर,
काटने का मज़ा।।
कर बहाने गुजरता मैं,
क्षण क्षण उधर।
जाए दिख बस कहि से,
तेरी एक झलक।।
था डर भी बहोत,
पर चाहते थी बड़ी।
कि रोक ले तू मुझे,
कह अभी तू न जा।।
अब ये समझेंगे क्या,
आज के छोकरे।
तेरे गलियों के चक्कर,
काटने का मज़ा।।
बन ठन कर निकलता,
जाने को कहीं।
पर एक चक्कर गली का,
था जरूरी तेरा।।
दोस्त कहते कि क्यों है,
वक्त बेवक्त इधर।
देख तो ले घड़ी की,
है कितना बजा।।
अब ये समझेंगे क्या,
आज के छोकरे।
तेरे गलियों के चक्कर,
काटने का मज़ा।।
न थी दुनिया की खबर,
ना वक्त का था पता।
क्या था अच्छा, बुरा,
किसकी कितनी खता।।
तुम ही पहली कशिश,
आखरी ख्वाहिश भी तू।
सिर्फ तुम्हि तो थी इक,
मेरे जीने की वजा।।
अब ये समझेंगे क्या,
आज के छोकरे।
तेरे गलियों के चक्कर,
काटने का मज़ा।।
©® पांडेय चिदानंद “चिद्रूप”
(सर्वाधिकार सुरक्षित ०७/०४/२०१९ )