️भैया!यह देखो बाबाजी का ठुल्लू️
रूप बसन्ती चितवन लेकर,
घूम रहा था उपवन-उपवन,
देख रहा था जीवन का कुछ,
रूप मिले कुछ जादू जैसा,
पर देखा यहाँ हर साख पर,
बैठा रहता मूक-बधिर उल्लू,
भैया!यह देखो बाबाजी का ठुल्लू।।1।।
मेरी मेहनत नई-नई थी,
और ज्ञान की रेखा अविरल,
दर्प उठा मेरी सुन्दरता का,
उठा भाव कुछ झूठा-सूठा,
शरीर मेरा यहाँ ठहर गया,
मन मेरा पहुँचा कुल्लू,
भैया!यह देखो बाबाजी का ठुल्लू।।2।।
शुद्ध हृदय पथ पर देखा कि,
पुष्प पड़े हैं रंग-विरंगे,
एक विरंगा पुष्प उठाया,
गज़ब की उसमें ख़ुश्बू निकली,
उसकी ख़ुश्बू सूँघ न पाया,
मन अटक रहा था कुल्लू,
भैया!यह देखो बाबाजी का ठुल्लू।।3।।
रूप राशि अब मुरझ रही थी,
उम्र की एक सीमा को चखकर,
उस सीमा में कितने-कितने,
देखे थे मानव के कौशल,
फिर यह मानव भटक क्यों गया,
डूब मरो ‘पानी भर चुल्लू’,
भैया!यह देखो बाबाजी का ठुल्लू।।4।।
बस मनोरंजन में ????????
@अभिषेक पाराशर