✒️कलम की अभिलाषा✒️
✒️कलम की अभिलाषा✒️
लिख दूँ ऐसे गुर सबल
वेदना को पीड़ा खल सके।
लड़ सके निःशब्द उल्फत
अमन दीप फिर जल सके।
अदब है मेरा, वीर मैं
मस्तिष्क लीला उकेरता।
हाथ नहीं अवतार हूँ
शोषित पर हाथ फेरता।
प्रेम क्षुधा बिखेर दूँ
तमस मन का निचोड़ दे।
अल्हाद से गगन भरा
मैं लिखूँ वो ओढ़ ले।
बागबान मेरी कलम
गुलिस्तां वतन मेरा।
चीर कर तमस गरल
ले जाये वो सफेरा।
जिल्द साज उस बोध का
भावना की शीत हूँ।
मैं मधुर अँगड़ाई लूँ
विहान की मति रचूँ।
पहल धूर्त पे सरेआम हो
शंखनाद हुंकार हो।
कत्ल की मुझमें धार नहीं
पर कृपाण का प्रहार हो।
मैं लिखूँ विलख उठे
कुटिलता भी मर सके।
चमक उठे ओज भी
बुराइयां ना ठहर सके।
सुरेश अजगल्ले “इन्द्र”