✍️ भ्रूणहत्या
प्रसून कुसुम कली कंठ तोड़कर
खुश होता नहीं माली है।
उपवन के कुमुद को तोड़ना
मानवता को गाली है।।
मन विषय-वासना से भरकर।
न जाने क्या-क्या खेल किये
अपनों से तो अपनापन था
गैरों से भी तो मेल किये ।।
जीवन की अनुपम बगिया में
बाग लगायें सुखों का ।
अब हुआ मौन, पाषाण बना
क्या पाहाड़ टूटा है दुःखों का ?
अनुभूति हुई जब कन्या की
मन लगा कोसने भाग्य को तब।
हाय!ये फल मिला किस कर्म से है
मै विफल रहा संसार में अब।।
नर सोच-सोच उन्माद भरे
अपने भुजबल पर गर्व करे।
ममता की छांव हटाऊंगा,
यह भ्रूण-अंकुर मिटाऊंगा।।
बेटी नहीं ,श्राप है ये
स्वयं ब्रह्मा की अभिशाप है ये।
जब मनुज दनुज बन जाता है
सृष्टि को वह बिखरता है ।
कुपित होते है धरणी-धरन
तन तेज विपुल का होता मरण।।
खल-कामी यह न समझता है
जननी ही सृष्टि की ममता है।
भ्रूण कन्या का न फूटेगा
वंशो का क्रम ही टूटेगा।।
न तू होगा न तेरा वंशज
सुन कान खोल रे दुष्ट कंसज।
जल-प्रलय फन फैलाएगी
धरती ये रसातल जाएगी।।
मन ममता का यदि रोयेगा
मानव अस्तित्व को खोएगा ।
शशि तेज विपुल बरसाएगी
यह सृष्टि भस्म हो जाएगी।।
हे मानव! डर तू अपनों से
अदृश्य सुता के सपनों से।
जिसने न जीवन को देखा
दुर्भाग्य से हस्त-लिखित रेखा।।
बस गलती उसकी है इतनी
माँ-बाप का कर्म फले जितनी।
बेटी बन जग में आनी थी
जीवन संताप उठानी थी
अश्रु पीकर रह जानी थी
थी व्यथित-वृहत सी कहानी थी।।
जग का अपमान उसे सहना था
भाई का लाज वो बहना था।।
है बाप बना हैवान अगर
वह नीति न्याय का छोड़ा डगर ।
माँ की ममता भी लजाई है
अपनी ही कोख जलाई है।।
न सोची कभी वह भी भ्रूण थी
प्रकृति-दाम्पत्य की वह तृण थी।
नूतन चीत्कार न सुन पाई
नव चीख पुकार न सुन पाई।।
ऐसा पर्याय न ममता का
जिसमें दृश्यभाव न समता का।
माता न कुमाता होती थी
संतान सुखों में खोती थी।।
पर नागिन बन अब बैठी है
मद-अग्नि क्रोध से ऐंठी है।
क्या यह युग ऐसा होगा ?
फिर कभी नहीं जैसा होगा।।
क्या कलयुग का प्रभाव है ये ?
या प्रलय का प्रादुर्भाव है ये ।।
विन्देश्वर राय ‘विवेकी’