✍️🌺प्रेम की राह पर-46🌺✍️
स्मरण की वेला में तुम्हारा अनायास स्वप्न जैसा आगमन कितना प्रभावित करता है।ऐसा प्रतीत होता है कि ज़मीन पर हीरा मिल गया हो।परं मिथ्या वचन का मेरा कोई भी एक उदाहरण तुम प्रस्तुत कर दो।कोई न मिलेगा।हाँ, विनोद का छिड़काव में समय समय पर करता रहता हूँ।निरन्तर किसी प्रसंग को जिसे आप सबसे अधिक चाहें, उस पर अपना स्वभाव ही न्यौछावर किया जाता है।तुच्छ वस्तुओं के प्रति मेरे किसी आकर्षण का कोई सवाल ही नहीं है।मंदचाल से चलता हुआ पथिक यदि उत्साह से भरा हो तो भी वह निश्चित ही उस पथ पर वीरोचित मार्ग का अनुगमन कर एक प्रभावी परिपाटी की स्थापना करेगा।कि मंदचाल से लक्ष्य प्रभावित नहीं होता है।यदि आप सजग हों तो।किसी बात का उसके कहने के स्थान पर विस्मरण हो जाना,संवाद को मृत बना देता है अथवा हर किसी बात को किसी मूर्ख व्यक्ति को जो संवेदनाहीन हो,से कह देना भी संवाद को मृत बनाने जैसा ही है।पारलौकिक विषय में हम अपनी बात का निर्वचन हर किसी से नहीं कर सकते हैं।नहीं तो हास्य के पात्र ही बनोगे।प्रेम का भी निदर्शन होता है।वह है दर्शन की भावना में रोमांच कैसा है।यह संसारी विनोद से ऊपर है।यदि यह रोमांच हृदय से उत्स कर रहा है तो आपका प्रेम प्रखर है।अन्यथा आप विषयी हैं और मन से भोग रहे हैं उस प्रेम राशि को।हे कृष्ण!तुम तो मेरा हृदय ही हो।मेरा हृदय और मन राम में रम रहा है।तो संसारी प्रेम को लघु रूप में ही क्यों दिया।राघव तुम तो स्वयं प्रेम ही हो।तो इस भयावह स्थिति को उत्पन्न करके कहाँ छिप गए।इस मरणासन्न स्थिति को उदय कर दिया फिर दिन रूपी आनन्द का तो प्रश्न ही नही उठता है।एक रोचक तथ्य का मशविरा भी किसी संसारी से जिससे मन मिलता उससे कर न सके।पता नहीं क्यों हे मित्र!तुम्हारे किसी कर्म पर सन्देह तो न हुआ।परन्तु तुम अपनी किसी भी बात को प्रस्तुत भी नहीं कर सके।सिवाय जूता और थूक के।कोई एक साधारण सा कथन भी कुछ स्वहृदय स्थित भवनाओं के साथ सत्य और असत्य के रूप में ही प्रस्तुत करते।ऐसा भी क्या तुम्हारे मनोमालिन्य में यह चल रहा हो कि इस धूर्त को यदि कुछ सही बता दिया तो कहीं मेरा त्याग न कर दे।कुछ निश्चित ही ऐसी ही भावनाओं का उभार तुम्हारे अन्दर है।परं तुम कुछ कहते ही नहीं हो।आराधक की भाँति मैंने एक से कहकर दूसरे को भी भले ही लघु रूप में आराधना का विषय बनाया।मैंने कहा कि मैं अपनी बातें सिर्फ़ तुमसे कहूँगा।तुम्हारे लिए लिखूँगा।कृष्ण तुमने कितना सुना और हे मित्र!तुमने कितना पढ़ा।मेरा आधा जीवन सन्यास लूँगा सन्यास लूँगा कहते कहते निकल गया।परन्तु तुम्हें उन सभी स्थियों का कथन करने के बाबजूद भी कोई ऐसी किसी भी बात का प्रेषण किसी भी और से न हुआ।जिससे नाम बदल-बदल कर रूप दिखाओ।तो इसका क्या प्रयोजन है।कोई प्रश्न करना है तो सीधे मुझसे कहा जाता तो उत्तर देता।तुमने कभी किसी भी कैसे भी संवाद को प्रस्तुत न किया।क्यों?या तो तुम्हारे अन्दर आत्मविश्वास का अभाव है या तुम मेरी अग्निपरीक्षा लेने की इच्छा करते हो।तो उसका भी कथन करो।मैं उन सभी निरपेक्ष मार्गों पर भी कृष्ण से कहकर खरा उतरूँगा।प्रेम और संदेह दोनों एक साथ नहीं रह सकते हैं।हाँ यह हो सकता है कि दोनों का निदान निकाला जाएँ और फिर केवल प्रेम को ही हृदय में सजीव रखा जाए।चिन्ता तो चिता होती ही है।परन्तु सन्देह तो उस अग्नि जैसा है कि जो उस सन्देह कर्ता की क्षण-क्षण चिता जलाए। उसकी वे क्षण-क्षण जलने वाली चिताएँ कई लोगों की चिन्ता का कारण बन जाती हैं।मैं चाहता था कृष्ण कि तुमसे लगे मेरे मन को कोई दूसरा भी मिलकर पूर्ण करें।तुम्हारे पिताम्बर की आश पूर्ण नही हो पा रही है और दूसरे की अग्निपरीक्षा।यदि किसी कृत्य को रोज करते हों तो उसमें किसी भी अवगुण का प्रादुर्भाव अपनी स्थिति से नहीं होने देना चाहिए।अन्यथा की स्थिति में आप में वह अवगुण एक देवता की प्रतिमा की तरह प्रतिष्ठित हो जाएगा और आप उसके पूजक बन जायेंगे।शायद ही आप उस प्रतिमा का आसानी से भंजन कर सकें।तो मित्र मैंने किसी भी अवगुण को ऐसे न पाला है कि वह प्रतिष्ठित हो।दूसरी मोहित करने वाली ईश्वरीय प्रतिमाएँ भी प्रतिष्ठित हैं मेरे अन्तः मैं।मैं अवरोधक तो नहीं हूँ तुम्हारा हे मित्र! फिर कृष्ण न तुम मिले और न तुम।हाय यह सब नष्ट हो जाएगा।यहीं।मेरे अन्दर ही।किसी से न कहना और सुनना-सुनाना।अब जीवन बड़ा कठिन है।
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🏵️©अभिषेक: पाराशरः🏵️
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