✍️धर्म के पानी का वो घड़ा✍️
✍️धर्म के पानी का वो घड़ा✍️
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बरसात की बुँदे
वहा भी बरस कर गई
पर बादल अब भी
आँखों में भरे थे
जैसे उन्हें पता हो के
शायद कोई अनहोनी
सी घटनेवाली थी…
ऊँची ऊँची इमारतों
पर शान से तिरंगा
आझादी के गीत
गुनगुना रहा था..!
उसे पता नही उसका
लाल रंग किसी नन्हे
बालक का लहु बन कर
ज़मी की मिट्टी में फिर
फ़ना होनेवाला है…
सुना है बारिश के
देवता तो ‘इंद्रदेव’ है
फिर कैसे एक मासूम
‘इंद्र’ को बूँद बूँद पानी के
लिए ही उसकी जान से
कोई बदजात आदम
खिलवाड़ कर गया…
अमृतकाल में ‘धर्म’ के
पानी से भरा था वो घड़ा
मगर प्यासा ही रह गया..
मिट्टी से बना था वो घड़ा
इस मिट्टी में अपनी
‘जात’ ढूंढते रह गया…
आँखों में भरे थे बादल
अब बिना रुके बरस रहे है..!
और चीख चीख
के भारत माँ को पूछ रहे है…!
इस धरा पे बरसनेवाले
पानी पे किसका अधिकार है..?
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©✍️’अशांत’शेखर✍️
18/08/2022