◆ मेरे संस्मरण…
#यादों_की_खिड़की
■ जब शौक़ शौक़ में उपज गया एक संस्थान
★ एक चाह, एक राह, एक नवाचार
【प्रणय प्रभात】
अपनी सुखद व प्रेरक स्मृतियों के गवाक्ष से आज एक और संस्मरण आप सभी के लिए लाया हूँ। प्रेरणा भी आप सुधिजनों की है, जिन्होंने इससे पहले के आलेखों व संस्मरणों को पसंद किया। इसी सराहना की देन है कि आज अतीत का एक और पृष्ठ उलटने का मन किया है। तमाम विषय किशोरावस्था के साथियों व अग्रज चित्रांश श्री हरिओम गौड़ ने अपनी प्रतिक्रिया में सुझाए। उन्हीं में से एक स्मरनीय प्रसंग को आज साझा कर रहा हूँ आपके साथ।
बात 47 साल पुरानी यानि वर्ष 1975 की है। तब मेरे परिवार को किराए के दो कमरों और एक बारामदे से निजि घर में आए चंद माह ही बीते थे। तब मेरी उम्र थी कुल 7 साल। मेरे कर्मयोगी “पापा” (यही कहता था इसलिए पिताजी या पिताश्री लिखने का कोई अर्थ नही) वन विभाग में एलडीसी (निम्न श्रेणी लिपिक) थे। पत्रिकाएं और हर तरह के उपन्यास पढ़ने का उन्हें बेहद शौक़ था। तन्ख्वाह परिवार के आकार व मुंह बाए खड़े दायित्वों की तुलना में बेहद कम थी। बिल्कुल “गर्म तवे पर पानी के छींटों” जैसी। इसके बाद भी एक ज़िद थी शौक़ के साथ कोई समझौता नहीं करने की।
पापा उन दिनों नियत अंतराल से प्रकाशित कुछ पत्रिकाएं खरीद कर लाया करते थे। इन पत्रिकाओं में रविवार, दिनमान, नवनीत, साप्ताहिक हिन्दुस्ताम, धर्मयुग, कादम्बिनी, सरिता, मनोरमा आदि के अलावा मेरे लिए चंदा मामा, नंदन, चंपक व गोलगप्पे जैसी बाल पत्रिकाएं शामिल थीं। जो कालांतर में साहित्य के प्रति समर्पण का कारण बनी। सोवियत संघ की बहुरंगीय पत्रिका सहित सर्वोत्तम रीडर्स डायजेस्ट हर महीने डाक से आया करती थीं। पापा की तरह मैं भी अपने शौकों के प्रति बेहद धुनी था। एक बार में एक पत्रिका पूरी चाट जाने की गति मेरी भी थी। नतीजा यह निकला कि छोटी उम्र में बाल पत्रिकाओं के साथ सामयिक पत्र पत्रिकाओं में रुझान बढ़ गया। यह संकट पापा के सामने भी ऐसा ही था। सभी पत्रिकाएं मुश्किल से हफ़्ते भर में निपट जाती थीं। तब अख़बार बहुत प्रचलित व उपलब्ध थे नहीं।
इसी तरहः के पशोपेश में पापा को एक युक्ति सूझी। अब उन्होंने अपना ध्यान मोटे-मोटे उपन्यासों की ओर केंद्रित कर दिया। वो शाम को दफ़्तर से वापसी के बाद देर रात तक उपन्यास पढ़ते थे। दिन में यही उपन्यास मेरे हाथ लग जाता था। दीवानगी का आलम यह था कि खाने-पीने की सुध भी नहीं रहती थी। अम्मा (दादी) या बड़ी बुआ सामने बैठ कर एक-एक निवाला मुँह में डालतीं और मेरी आँखें उपन्यास में गढ़ी रहतीं। साल भर में यह अहसास पापा को हो गया कि अल्प वेतन में यह शौक़ पूरा कर पाना दिक़्क़त का सबब बनता जा रहा है। घर में इकट्ठे हुए सौ से ज़्यादा उपन्यास अब तक कई-कई बार पढ़े जा चुके थे। उन्हीं की ढेरी को देखकर पापा को ख़याल आया एक पुस्तकालय शुरू करने का। अपना शौक़ पूरा करना एक मक़सद था। दूसरा मक़सद अपने जैसे उन तमाम लोगों की सेवा था, जो खरीद कर उपन्यास नहीं पढ़ सकते थे। मनोरंजन के दूसरे कोई साधन तब छोटे कस्बे जैसे श्योपुर में थे नहीं। कस्बे के दो व्यावसायिक पुस्तक भंडार प्रतिदिन के हिसाब से किराया वसूलते थे। जो पाठकों को मंहगा पड़ता था। कई बार उपन्यास या पत्रिका का किराया उसकी क़ीमत से ज़्यादा हो जाता था। ऐसे में पुस्तकालय की परिकल्पना सच में बेहद महत्वपूर्ण और समयोचित थी।
अचानक, एक शाम पापा दफ़्तर से लौटे तो उनके हाथ मे लकड़ी की एक तख़्ती थी। उस पर सुंदर अक्षरों में-“प्रभात पुस्तकालय” लिखा हुआ था। घर की बैठक के दरवाजे पर तख़्ती ठोक दी गई। देर रात तक बैठक की आलमारियों से लेकर टांड तक पर पुराने अखबार बिछा कर सारे उपन्यास सलीके से सजा दिए गए। तय किया गया कि पाठकों से कुल 2 रुपए प्रति माह लिए जाएंगे। जो राशि महीने भर में जमा होगी, उतनी ही जेब से मिलाई जाएगी। यही राशि नए उपन्यास खरीदने के काम आएगी। छोटी सी नगरी में यह पहल बिना प्रचार-प्रसार के रंगत पा गई। पापा के कुछ सहकर्मी व परिचित सबसे पहले इस लायब्रेरी के सदस्य बने। फिर बात उनके परिचितों तक पहुंची तो सदस्यों की संख्या और भी बढ़ने लगी। शुरुआती माह में क़रीब एक सैकड़ा के आसपास सदस्य बन चुके थे। अमानत राशि (डिपॉज़िट) के तौर पर अधिकतम 5 व न्यूनतम 3 रुपए अग्रिम जमा कराने का प्रावधान किया गया था। सदस्य यह राशि सहर्ष जमा करा रहे थे। सोच फलीभूत हो रही थी।
तीन-चार महीने बाद विभागीय काम से ग्वालियर गए पापा नॉवेल्टी बुक सेंटर से अनुबंध कर आए। वहां से नए उपन्यास व्हीपीपी के जरिए डाक से आने लगे। हर पैकेट को खोलना और साथ आई सूची देखना बेहद रोचक हुआ करता था। हरेक किताब पर खाकी या बादामी रंग का चिकना व मज़बूत कवर चढ़ाना हमारा ही काम था। किताबों की पंजी में नाम लिखना, किताब पर नम्बर डालना और सील (मुहर) लगाना भी। इन कामों में मुझसे चार साल छोटा भाई “अन्नू” भी अब होशियार हो चुका था। बाद में तीसरे नम्बर के भाई “पिन्नू” सहित दिन भर साथ रहने वाले कुछ सखाओं ने भी हाथ बंटाना शुरू कर दिया। उपन्यासों की संख्या सदस्यों की तरह तेज़ी से बढ़ रही थी। लिहाजा दीवारों से सटे लकड़ी के रैक बनवाए गए। छह माह में बैठक की दीवारें कम पड़ गई। किताबों की व्हीपीपी अब सीधे दिल्ली से भी आने लगी थीं। सभी नामी और चर्चित प्रकाशनों से हम सीधे संपर्क में थे। डाक से प्रकाशित उपन्यासों की सूचियां आती थीं। हम पसंद के उपन्यासों पर टिक लगाकर फिर प्रकाशन को भेजते। वही किताबें व्हीपीपी से कुछ रोज़ में आ जाती थीं। जिन्हें पढ़ने का उत्साह सभी सदस्यों की तरह हम भाइयों और पापा में भी रहता था।
अगले कुछ सालों में हमारी छोटी सी लायब्रेरी बाज़ू वाले कमरे के रास्ते अंदर वाले तीसरें कमरे तक पहुंच गई। सुबह-शाम सदस्य आते और हम उन्हें पंजी (रजिस्टर) थमा देते। वो पन्ने पलटते हुए उपन्यास का नम्बर बोलते। हम तुरन्त निकाल कर उन्हें थमा देते। वाकई बहुत रुचिकर और मज़ेदार था यह काम। लगभग डेढ़ दशक से भी कुछ अधिक समय तक चले इस पुस्तकालय ने हज़ारों उपन्यास पढ़ने व औरों को पढ़ाने की राह आसान बनाई। शायद ही कोई उपन्यासकार होगा, जिसकी किताब लायब्रेरी में न रही हो। इनमें सामाजिक, जासूसी और थ्रिलर सहित साहित्यिक उपन्यास शामिल थे। क्रमश: 21 और 24 खण्डों वाले चंद्रकांता संतति व भूतनाथ (बाबू देवकीनंदन खत्री रचित) से लेकर सत्यार्थ प्रकाश (महृषि दयानन्द सरस्वती) तक संग्रह में थे। मशहूर लेखक जेम्स हेडली चैइस से लेकर वेदप्रकाश शर्मा और गुलशन नंदा से लेकर रानू व सरला रानू तक के सैकड़ों उपन्यास हमारे पास थे। आचार्य चतुरसेन शास्त्री, अमृत लाल नागर, वृंदावन लाल वर्मा, रवींद्रनाथ टैगोर, बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय, मुंशी प्रेमचंद, रामकुमार वर्मा ‘भ्रमर”, अमृता प्रीतम, शिवानी, नरेंद्र कोहली, भीष्म साहनी, धर्मवीर भारती जैसे लेखको के बहुचर्चित उपन्यास भी हमारे इस नायाब संग्रह की शान थे। इनके अलावा सुरेंद्र मोहन पाठक, शौक़त हुसैन थानवी, इब्ने सफ़ी (बीए), कर्नल रंजीत, आदिल रशीद, ओमप्रकाश शर्मा, ओमप्रकाश कम्बोज, समीर, चंदन, राजवंश, राजहंस, मनोज, रवि, सूरज, लोकदर्शी, प्रियदर्शी, भारत, ऋतुराज जैसे कई लोकप्रिय लेखकों व उनके उपन्यासों के नाम आज भी ज़हन में सुरक्षित हैं। यही नहीं सैकड़ों उपन्यासों के कथानक और पात्र भी आज स्मृति में बसे हैं।
लगभग आधा लाख के आसपास पढ़े गए इन उपन्यासों ने शब्दकोष को बढाने का काम तो किया ही, दिमाग़ पर धार भी ख़ूब की लायब्रेरी में मौजूद राधेश्याम रामायण और मटरूलाल अत्तार कृत आल्हा-ऊदल के सभी खण्ड काव्य शैली जागृत करने वाले रहे। अलिफ लैला, गुल बकावली जैसे संग्रहों ने उर्दू भाषा का बीजारोपण किया। हर तरहः की कितानों ने उस छोटी सी उम्र में मात्रिकता, गेयता व लयात्मकता से अवगत कराया। भाषा, शैली और शब्द ज्ञान भी इसी दौर में हुआ। जिसने “बाँटन वारे के लगे ज्यों मेंहदी को रंग” वाली बात को साकार किया।
आज बिना किसी संकोच कह सकता हूँ कि पढ़ने के जुनून ने ही लेखन के इस स्तर तक पहुंचाया। जहां किसी भी विधा में, किसी भी विषय पर लिख डालना “बाएं हाथ के खेल” सा लगता है। आज जितना भी लिख पा रहा हूँ या लिख चुका हूँ, इन्ही कितानों और लेखकों की देन है। लेखन के अतिरिक्त तर्क-वितर्क, अन्वेषण, विश्लेषण, समीक्षा, टिप्पणी, कटाक्ष जैसी कुछ खूबियां भी उसी दौर की सौगात है। स्मृतियों के झरोखे में बैठ कर इस लायब्रेरी के आधार कुछ सदस्य पाठकों के नामों का उल्लेख न करूं तो धृष्टता होगी। इनमें पहला नाम श्री अकोलकर साहब का है जो एकाकी बुजुर्ग थे पुरानी कचहरी के सामने विट्ठल मंदिर में अकेले रहते थे। दूसरा नाम शासकीय कन्या शाला की शिक्षिका श्रीमती शालिनी कांटे का है। जिनकी बेटी अंजली बाद में मेरी सहपाठी भी रही। आज अधिकांश पाठकों व सदस्यों की तरहः इनकी स्मृतियां ही शेष हैं। जिनक प्रोत्साहन व सहयोग के बिना संस्थान का विस्तार व सफल संचालन शायद ही संभव हो पाता।
शिक्षिका श्रीमती प्रभा टोकेकर, श्रीमती तारे मैडम, प्राथमिक कन्या शाला की शिक्षिका श्रीमती लीला शर्मा, हम तीनों भाइयों के शिक्षक व मार्गदर्शक रहे श्री विट्ठल राव आचार्य, महाराष्ट्र समाज के वरिष्ठ सदस्य श्री जीएम टिकेकर, इसी परिवार की सौ. करुणा टिकेकर, श्री श्याम मोहन पंड्या और घर के सामने रहने वाली वयोवृद्ध अन्नपूर्णा बुआजी, ज़िला अस्पताल में लेब टेक्नीशियन रहे श्री केएम कुरैशी आदि के नाम अच्छे व नियमित सदस्यों में अग्रणी रहे। हमारे ही मोहल्ले में रायपुरा वाले पटवारी जी के मकान में किराए से रहने वाले श्री जेपी गुप्ता भी एक अच्छे इंसान व सदस्य के तौर पर स्मृति में हैं। जो शायद लोक निर्माण विभाग अथवा जल संसाधन विभाग में सेवारत थे। उनकी दो बेटियां पप्पी-बबली मेरी मम्मी की छात्राएं हुआ करती थीं। पाठकों में श्री जीके श्रीवास्तव का नाम भी अग्रणी है। जो कॉलेज में लाइब्रेरियन थे और कालांतर में एक छात्र की प्राणरक्षा के प्रयास में शहीद हो गए।
दो नाम विशेष रूप से याद हैं। इनमें एक श्री गोकुल प्रसाद सिंह कुशवाह नामक बुजुर्ग थे। कभी सेना में रहे मृदुभाषी श्री कुशवाह मुझ जैसे छोटे बालक को भी “प्रभात जी” कह कर संबोधित करते थे। महीना पूरा होते ही 2 रुपए का नोट थमाने वाले नुज़ुर्ग सदस्य पापूजी मोहल्ले में अपनी बेटी के घर रहते थे। स्मृति में है वो दिन, जब उन्हें चुस्की ( रंगीन पानी की आइसक्रीम) का डिब्बा लिए सब्ज़ी मंडी में घूमते देखा। उनसे सदस्यता शुल्क लेना अपराध-बोध का विषय बन गया था मेरे लिए। तमाम बार मना किया किंतु वे नहीं माने। आग्रहपूर्वक पैसे हाथ में थमाते रहे। अरसे तक सदस्य रहे यह आदर्श और आत्मनिर्भर बुजुर्ग बाद में बीमार हुए और इस दुनिया को अलविदा भी कह गए। ईमानदारी यह थी कि इससे पहले वे 2 रुपए और पढ़े जा चुके आखिरी उपन्यास को लौटा चुके थे। उस दिन वे बेहद थके हुए नज़र आ रहे थे। उखड़ी साँसें अधिक बोलने की इजाज़त नहीं दे रही थीं। इतना ही बोल पाए कि अब किताब वो तबीयत ठीक होने के बाद ही लेने आएंगे। काश, वे आ पाते और आते रहते अरसे तक। अपने बाबा (दादा) की झलक देखने लगा था मैं उनमें। असली बाबा तो मुझे देखने से पहले ही स्वर्ग सिधार चुके थे। स्मृति में रची-बसी उन कृशकाय बुज़ुर्गवार की बेहद शालीन छवि आज भी आंखें भिगो देती हैं। अब ये बात सच लगती है कि अच्छे इंसान याद रह जाते हैं।उन्हें याद किया नहीं जाता। एक सज्जन का नाम उदय कुमार हुआ करता था। घनी काली दाढ़ी-मूंछ और बेहद शानदार व्यक्तित्व। सर्दी के मौसम में एक लाल ब्लेज़र पहने हो देखा उन्हें, जो ख़ूब फबता भी था उन पर। वे शायद न्यायालय में पदस्थ थे और कचहरी के सामने सीताराम जी की गली में स्थित श्री सुभाष बूँदीवाले के घर के भूतल पर किराए से रहा करते थे। परिवार से आत्मीयता बढ़ी तो उन्होंने हमें जलपान पर भी बुला लिया एक दिन। जबकि वो ख़ुद अकेले रहा करते थे तब। कृतित्व और व्यक्तित्व की अच्छाई से जुड़े ये दो उदाहरण बताते हैं कि आपके पास एक भी हो तो बहुत है।
तो दोस्तों! यह थी शौक़ के संस्थान में बदलने की एक रोचक व प्रेरक कथा। जिसने जीवन को एक दिशा दी। दिशा सही थी या ग़लत, यह अलग से सोचने का विषय है। वो भी अलग-अलग आयामों से। आज ना पापा हैं और ना उनका पुस्तकालय। वक़्त की दीमक सब चाट चुकी है। स्मृति अक्षुण्ण है जिसे अपने पापा के प्रति मेरी कृतज्ञतापूर्ण श्रद्धांजलि कह सकते हैं आप। यह संस्मरण नवाचार, परोपकार तथा सहकार की अलख जगाने वाला भी हो सकता है। स्वाध्याय के सुफल का एक संदेश भी इसमें समाहित है। इति…..।
■प्रणय प्रभात■
●संपादक/न्यूज़&व्यूज़●
श्योपुर (मध्यप्रदेश)
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