◆◆ मंजरि ◆◆
लेकर ब्रह्मा की मानस पुत्री का रूप, सरस्वती वो कहलाती है,
छेड़ कर वीणा का राग, हर जन के कंठ को स्वर से भर जाती है,,
भटक रहे भार्या की तलाश में प्रभु वन-वन,
शबरी आज उन्हें झूठे वेर खिलाती है,,
हर ओर पीली सरसों की खुशबू बिखरी फ़िज़ा में,
आम की डाली पर मज़रि भी झूम-झूम इठलाती है,,
कंचन फूलों के रस में बाग सारा महक रहा,
भवरे के संग प्रेम रस में भींग कर एक कली इतराती है,,
बीते दिन पतझड़ के, हरियाली का आगमन है,
कोयल डाली पर बैठ ,गीत गा कर सब को सुनाती है,,
फागुन की छटा बिखर रही चारो ओर,
अबीर, गुलाल बरसा कर राधे मुरारी संग फाग मनाती है,