{{~~◆◆मन की बात◆◆~~}}
ठंडा पड़ा है गरीब का चूल्हा सारी उम्मीदों को
गुमराह कर.
मजबूर बाप दे रहा दिलासे भूखे बच्चों को,सच
को जलाकर।
बंद हो गया एक मेहनत का भी राह जो बाकी था,
भूखा पेट रो रहा करहाकर।
उथल पुथल हो गए सब ठिकाने,परदेशी मजदूर
चल पड़ा घर अपने घबराकर।
बेबसी की हद ना पूछो पैदल ही चला है कोसों दूर
तक,नन्हें मुन्नों को कंधे पे उठाकर।
कल तक जला रहा था जो मजदूरी में बदन अपना,
नंगे पैर ही बढ़ा है तपती सड़क पर हिम्मत को जुटाकर।
बहु बेटियां भी मजबूर हो गयी दर दर की ठोकरों को,
कई तो बेसहारा हो गयी सुहाग अपना गवाकर।
थक हार कुछ तो सो गए रेल की पटरियों पर,ले गयी
मौत रफ़्तार बन साथ कितनों को मिटाकर।
बड़ी बड़ी कर रहे हैं देश के रहनुमा मन की बात,गरीब
ने कब हक़ पाया अपना,इनको कुर्सी पर बिठाकर।