■ व्यंग्य / मूर्धन्य बनाम मूढ़धन्य…?
■ शर्म जिनको कभी नहीं आती!
★ पता न ज़ेर का न जबर का
【प्रणय प्रभात】
आपने अक़्सर ऐसे तमाम नाम पढ़े होंगे, जिनके नीचे बड़े-बड़े विशेषण लिखे होते हैं। जैसे साहित्यकार, शिक्षाविद्, पुरातत्वविद्, विधिवेत्ता, शाहित्य-मर्मज्ञ आदि आदि। मज़े की बात यह है कि ऐसे विशेषण लोग-बाग ख़ुद के लिए ख़ुद ही लगा लेते हैं। पूरी बेशर्मी के साथ। विशेषण कोई दूसरा लगाए तो समझ भी आए। सवाल उनका है जो स्वघोषित विद्, वेत्ता और मर्मज्ञ बने घूम रहे हैं। वो भी बिना पात्रता के। दिमाग़ में संचालित “ख़लल यूनिवर्सिटी” के इन आत्म-मुग्ध धुरंधरों को मूर्धन्य कहा जाए या मूढ़-धन्य…? आप ही तय करें। वो भी ऐसे नहीं, उनके लिखे को पढ़ कर। इसके लिए कहीं भटकने की ज़रूरत नहीं साहब! सब यहीं मिल जाएंगे। बशर्ते आप ग़ौर फ़रमा पाएं। एक ढूंढो, हज़ार पाओगे वाली बात को याद कर के।
कलियुग के इन दुर्योधन, दुशासनों को यह भी होश नहीं कि वे संबद्ध क्षेत्र का चीर-हरण कर रहे हैं। शायद इस बेख़याली के साथ कि उनकी ढीठता को आईना कौन दिखाएगा। प्रायमरी या मिडिल के बच्चों को बारहखड़ी रटाने वाले शिक्षाविद् संविधान के किस विधान के तहत बने, कौन पूछे? वेत्ता और मर्मज्ञ तो इससे भी दूर की कौड़ी है, जिसे दो कौड़ी के लोग जेब में डाले फिर रहे हैं। कइयों का दिल इतने से भी नहीं भर पा रहा। उन्हें उक्त पदवियों से पहले वरिष्ठ जैसा लेबल भी ख़ुद ही लगाना पड़ता है। बेहद मजबूरी में, मासूमियत की आड़ में मक्कारी के साथ। वो भी सरे-आम, दिन-दहाड़े। चाहे याद न हों दस तक के पहाड़े।
बेचारे रहीम दास समझा कर भी चिरकालिक चुरकुटों को समझा नहीं पाए। समझा पाते तो इन्हें समझ होती कि पहाड़ उठाकर हर कोई गिरधारी नहीं बनता। लगता है “दिल है कि मानता नहीं” जैसा गीत लिखने वाले के तसव्वुर में ऐसे ही विद्वान रहे होंगे। जिन्होंने खोपड़ी पर सवार होकर अपनी स्तुति लिखवा डाली। झूठे महत्तम के चक्कर में अपने असली लघुत्तम का सवा-सत्यानास करने वालों ने काश सुंदर-कांड पढा होता। सीख ली होती बजरंग बली से, कि किसी का क़द या पद मायने नहीं रखता। मायने रखती है उसकी अपनी दक्षता, पात्रता और क्षमता। जो उसे अष्टद्विद्धि-नवनिधि का ज्ञाता भी बनवा देती है और “ज्ञानिनाम अग्रगण्यम” जैसी उपाधि से विभूषित भी कर देती है।
हुजूर…! बन्दे ने डी.लिट जैसी सर्वोच्च उपाधि पाने वाले कई मनीषियों को नाम से पहले “डॉक्टर” लगाने से परहेज़ करते ही नहीं देखा, आर.एम.पी. का सर्टीफिकेट हासिल कर “डॉक्टर साहेब” कहलाते भी देखा है। वो भी मंगल-ग्रह पर नहीं, इसी मृत्युलोक में। इसी तरह अब विद् और वेत्ताओं की चतुरंगिणी सेना देख रहा हूँ। जिसमें सारे के सारे सेनापति ही हैं। वो भी अपने पिछवाड़े बिना किसी सैनिक की मौजूदगी के। ऐसे लोगों के नाम के साथ लगे विशेषण वैसे ही हैं, जैसे पड़ोसी मुल्क़ के कमांडरों की छाती पर लगे तमगे। वो भी हर जंग में मात और लात खाने के बावजूद। कौन पूछे कि किसने दिए और किस पराक्रम के लिए? बस बाज़ार से लाए और लटका लिए जेब के ऊपर। ये साबित करने के लिए कि नियम-क़ायदे सब इसी जेब में धरे हैं। जिनकी रक्षा के लिए पदक वन्दनवार से टंगे हुए हैं। बेचारे, मूक न होते तो शायद खुल कर धिक्कार पाते।
कौन समझाए यार, कि छोटी “इ” से इमली, बड़ी “ई” से ईख सीख आओ पहले कहीं से। फिर मन करे वो लिखो। वरना छोटे “उ” से उल्लू साबित हुए तो बड़े “ऊ” से ऊन की तरह उधेड़े जाओगे किसी दिन। विद् और वेत्ता बनने का सारा मुग़ालता धरा का धरा रह जाएगा। वो भी उसी धरा पर, जो पांवों के नीचे से खिसक लेगी। दोनों लेग्स (टंगड़ियों) को ऊपर वाले के भरोसे छोड़ कर। समझा रहे हैं फिर से एक बार। वर्णमाला और ककहरा अच्छे से रट लो। मात्राओं से पहचान बढ़ा लो। हो सके तो थोड़ी सी व्याकरण पढ़ आओ किसी से। ताकि शिक्षा, साहित्य, धर्म, पुरातत्व आदि आदि की इज़्ज़त का फ़ालूदा न बने। उन्हें भी आप सरीख़े बेग़ैरतों की दुनिया में थोड़ी-बहुत ग़ैरत से जीने का हक़ है। क्योंकि वो सब आपकी तरह न “नाहक़” हैं और न “अहमक़।”
डायरेक्ट “वरिष्ठ” बनने से पहले “कनिष्ठ” बन के देख लो कुछ दिन। शायद “गरिष्ठ” न लगो, मेरे जैसे किसी कमज़ोर पाचन-तंत्र वाले को। वरना अजीर्ण की स्थिति वमन को जन्म देगी और कपड़े-लत्ते आपके अपने बिगड़ेंगे। याद रहे कि ज़माने की नाक बड़ी तेज़ है। वो “सुगंध” को भले ही पकड़ने से रह जाए, “दुर्गंध” को लपकने से नहीं चूकती। प्रमाणपत्र बांटने से पहले बांचने लायक़ बन लो। तमाम विशेषण अपने आप आ चिपकेंगे नाम के साथ। जो सम्मानित करेंगे भी और होंगे भी। बशर्ते आप उन्हें अपमानित करने की मनचाही मूर्खता से निज़ात पा जाएं एक बार। पाना चाहें तो…..!!
■ प्रणय प्रभात ■
श्योपुर (मध्यप्रदेश)