Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
28 Feb 2023 · 10 min read

■ लीक से हट कर…..

#मार्मिक_आलेख
■ आज “आंखों” देखा भी “झूठ”
【प्रणय प्रभात】
कहा जाता है कि कानों से सुना झूठ हो सकता है, मगर आंखों देखा नहीं। जबकि सौलह आना सच्चाई इस मान्यता में भी नहीं है। छद्म लोगों की मायावी दुनिया में खुली आँखों से देखा जाने वाला सच भी झूठा निकल सकता है। यही वो स्थिति है, जिसमें आप और हम बेनागा छले जाते हैं। मुझे पता है कि बहुत से लोग आंखों देखे झूठ के इस सच को आसानी से ना समझ पाएंगे, ना ही स्वीकार सकेंगे। इसीलिए सुनाना चाहता हूँ एक कहानी। पहले उसे पढ़िएगा। फिर हम आगे की बात करेंगे। कहानी बेहद दिलचस्प है। जिसे आप एक लेखक की आपबीती भी मान सकते हैं।
एक लेखक अपने जीवन की सबसे बेहतरीन कथा लिखना चाहता था। उसे तलाश थी एक अनछुए से विषय और कथानक की। शहरी जीवन पर तमाम कथाएं लिख कर वह ऊब चुका था। उसकी चाह आंखों देखे एक सच को कहानी में ढालने की थी। एक ऐसी कहानी जो पाठकों के मर्म को छू सके और बरसों-बरस भुलाई न जा सके। इसी इच्छा के साथ उसने एक सूटकेस में चार जोड़ी कपड़े, डायरी और क़लम रखी तथा बस पकड़ ली। अब उसकी मंज़िल था सुदूर पहाड़ी क्षेत्र का एक कस्बे-नुमा गांव। जो बेहद खूबसूरत भी था और सस्ता भी। ऊंचे-नीचे और घुमावदार रास्तों पर कुछ घण्टों का सफ़र पूरा हुआ। अब हाथ में सूटकेस उठाए लेखक पहाड़ियों के बीच शांत व सुरम्य क्षेत्र में एक कॉटेज की ओर अग्रसर था। जिसका पता उसे एक स्थानीय सहयात्री से यात्रा के दौरान ही मिला था। जगह बस अड्डे से बहुत दूर नहीं थी। लिहाजा वो लगभग टहलने वाले अंदाज़ में पैदल ही उस कॉटेज तक पहुंच गया।
कॉटेज के मालिक ने दस्तक सुन कर दरवाज़ा खोला। पर्वतीय क्षेत्र की संस्कृति के अनुसार लेखक का मुस्कान के साथ अभिवादन करते हुए स्वागत किया। सामान्य सा परिचय लिया और कॉटेज का एक कमरा उसके सुपुर्द कर दिया। लकड़ी का बना यह कमरा छोटा लेकिन बेहद सुविधा-जनक था। उसमें साफ-सुथरे बिस्तर वाला एक पलंग लगा था। शानदार हवा और भरपूर रोशनी देने वाली एक बड़ी सी खिड़की थी। खिड़की से सटी हुई एक लकड़ी की बड़ी सी मेज़ और कुर्सी भी थी। एक लेखक को इससे बेहतर कुछ चाहिए भी नहीं था। उसने सूटकेस को पलंग के समीप रखा और थकान दूर करने के लिए पलंग पर लेट गया। थकान के चलते बंद आंखें शाम ढलने से कुछ पहले दरवाज़े पर हुई दस्तक से खुलीं। दरवाज़े पर कॉटेज का मालिक एक ट्रे में महकती हुई चाय और बिस्किट्स लिए खड़ा था। जो उसने मेज़ पर रखी और उल्टे पांव बाहर निकल गया। लेखक ने कुर्सी पर बैठकर चाय-नाश्ता किया और उठ खड़ा हुआ। अब वो कुछ देर आसपास टहलना चाहता था, ताकि एक कहानी का कोई विषय उसे मिल सके। मुश्किल से दस मिनट बाद वो सड़क पर था। जहां उसके जैसे चंद सैलानी और कुछ स्थानीय लोग ही नज़र आ रहे थे। वो आराम से टहलता हुआ क़रीब आधा किलोमीटर दूर पहुंच गया।
कस्बे का क़ुदरती सौंदर्य मनमोहक था। शोरगुल लगभग नहीं के बराबर। पक्षियों की तरह-तरह की आवाज़ें मन को मोहने वाली थीं। उसे लगा कि वो बिल्कुल सही जगह पर आया है। जहां एक नायाब कहानी की तलाश ज़रूर पूरी होगी। वो भी बहुत जल्द। उसके चेहरे पर मंद सी मुस्कान थी और क़दम वापस कॉटेज की ओर मुड़ चुके थे। इससे पहले कि वो कॉटेज तक पहुंचता, उसकी नज़र सामने से आती एक नवयौवना पर गई। लालिमायुक्त वर्ण और अप्रतिम सौंदर्य। सादगीपूर्ण लिबास और हाथ में कपड़े से ढंकी एक थाली। लगता था उसका गंतव्य कोई मंदिर था। लगातार पास आते चेहरे पर लेखक की अपलक निगाहें मानों ठहर सी गई थीं। कुछ क्षणों बाद वो लेखक के बाजू से होकर गुज़र गई। लेखक उसे पलट-पलट कर देखने से ख़ुद को रोक नहीं पा रहा था। एक अजीब सी कशिश थी सादगी से भरपूर उस सौंदर्य और लावण्य में। लगा कि उसे अपनी कथा की नायिका अनायास मिल गई। दुविधा बस यह थी कि उसके बारे में न कोई जानकारी थी, न किसी से मिलने की कोई उम्मीद। फिर भी एक सम्मोहक सा आकर्षण लेखक के दिलो-दिमाग़ पर हावी था।
उसने कॉटेज लौट कर हाथ-मुंह धोए। कॉटेज मालिक द्वारा लाए गए पहाड़ी भोजन का लुत्फ़ लिया। इस दौरान उसका ज़हन पल भर को भी उस विवाहिता युवती की याद से अलग नहीं हुआ। अंततः उसी के ख़यालों में डूबे लेखक को नींद ने अपने आगोश में ले लिया। सुबह उसकी नींद लगातार चहचहाते परिंदों ने खोली। वो उन्हें देखने के लिए खिड़की के पास बने दरवाज़े को खोल कर बाहर बनी छोटी सी बालकनी में पहुंच गया। यह ऊंची पहाड़ी पर बने कॉटेज का पिछवाड़ा था। जहां कुछ निचले हिस्से में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर चंद छोटे-छोटे घर बने हुए थे। नज़दीक बने घर के आंगन में एक बड़ा सा बिरवा नज़र आ रहा था। जिसमें लहलहाती तुलसी बिना कुछ बोले बता रही थी कि उसकी सेवा अच्छे से हो रही है। इससे पहले कि उसकी निगाह हट पाती, एक चमत्कार सा हुआ। उसने बिरवे के पास उसी नव-विवाहिता को देखा, जो हाथ में थामे ताँबे के गंगासागर से तुलसी को जल अर्पित करने आई थी। लेखक की धड़कनें अब नियंत्रण से बाहर थीं। वो सुध-बुध खोए उसी दिशा में निहारे जा रहा था। युवती ने सारा जल अर्पित करने के बाद बचा हुआ जल अंजलि में लेकर ख़ुद पर छिड़का। बिरवे की प्रदक्षिणा की, तुलसी को प्रणाम किया और सिर के पल्लू को संभालती हुई घर के अंदर चली गई। लेखक उसकी वापसी के इंतज़ार में देर तक खड़ा रहा पर वह नहीं लौटी। शायद दिनचर्या के कामों में उलझ गई थी।
लेखक अंदर आकर नित्य-क्रिया से फ़ारिग होने में जुट गया। गुनगुने पानी से नहा कर कुर्ता-पाजामा पहन ही रहा था कि गर्मा-गर्म पकौड़ियों के साथ बादामी रंगत वाली चाय मेज पर सज गई। अब वो जल्द नाश्ता ख़त्म कर उस कहानी का आग़ाज़ कर देना चाहता था, जिसके लिए वो यहां तक आया था। नाश्ते के बीच उसके दिमाग़ ने कहानी की शुरुआत के बारे में सोचने का काम जारी रखा। उसने सूटकेस से डायरी निकाली और कुर्सी पर बैठकर लिखने का मानस बनाया। जहां से युवती के घर का आंगन साफ़-साफ़ दिखाई दे रहा था। इससे पहले कि उसकी लेखनी अपना काम शुरू करती, कुछ कर्कश और तीखे स्वर उसके कानों तक पहुंचे। ग़ौर करने पर लगा कि लग्भग चीखती हुई सी वो आवाज़ किसी वृद्ध महिला की थी। जो पूरी दम लगा कर लगातार गालियां दे रही थी। ऐसे माहौल में कुछ भी लिख पाना संभव नहीं था। उसने बालकनी में आकर आवाज़ की दिशा में कान लगा दिए। तुरंत पता चल गया कि आवाज़ उसी घर से आ रही थी। युवती बिरवे के पास जमा पक्षियों को रोटी के छोटे-छोटे टुकड़े कर के डालने में व्यस्त थी। चेहरे पर वही दमक और मद्धिम सी मुस्कुराहट।
अब उसकी छवि लेखक के मन में एक आदर्श नायिका की बन चुकी थी। सौम्य, संस्कारित व सर्वगुण-संपन्न महान भारतीय नारी की। दिमाग़ में पूरा कथानक स्पष्ट हो रहा था। यक़ीन हो चुका था कि कहानी इसी युवती के इर्द-गिर्द पूरी होगी। जो एक क्रूर सास के साथ रह रही एक तरुणी के उदात्त जीवन के तमाम पहलुओं को उजागर करेगी। कुछ देर तक उन गालियों को सुनने व युवती के मनोभावों को परखने के बाद लेखक ख़ुद को एक जौहरी समझ रहा था। लगता था कि उसने हीरे की तलाश में कोहिनूर हासिल कर लिया है। डायरी के पन्नों पर लेखनी अब सरपट दौड़ने को बेताब थी। भावनाओं में डूबे शब्द कहानी की पगडण्डी पर कुलांचे भरना चाहते थे। लेखक कुर्सी पर बैठ कर एक कालजयी कहानी को साकार करने में जुट गया। उसकी लेखकीय तन्मयता देर शाम तक कई बार फूहड़ गालियों के स्वरों से टूटी, तो दो-चार बार अपनी नायिका के दीदार से। जो निरापद, निर्विकार भाव से कुछ न कुछ करती दिखाई दे रही थी। क़लम दिमाग़ के साथ क़दमताल कर रही थी। कोरे पृष्ठ उस नायिका की जीवन-चर्या के साक्षी बन रहे थे।
अब लेखक का बस एक ही लक्ष्य था और वो था इस कहानी को पूरा किए बिना कमरे से बाहर न निकलना। इस संकल्प को साधे चार दिन कब बीत गए, पता ही न चला। कहानी पर पूर्ण विराम लग चुका था। अनगिनत बिम्बों और प्रतिमानों के साथ नारी-विमर्श को नूतन आयाम देने वाली अमर-कथा लिखी जा चुकी थी। लेखक अपनी नायिका को जनमानस में उर्मिला, गार्गी, मदालसा, अनुसुइया जैसे न जाने कितने स्वरूपों में पढ़ व गढ़ चुका था। उसे यह भी अंदाज़ा हो चुका था कि उसका पति आजीविका के लिए अन्यत्र रहता है। साथ ही यह भी कि परिवार में कोई तीसरा सदस्य भी नहीं है। युवती की सास का विद्रूप वर्णन भी कहानी का अंग था। जो उसे मानव-देह में एक राक्षसी रेखांकित करता था। पूरी तरह अनदेखी वृद्धा के प्रति घृणा से भरपूर कथा युवती के सद्गुणों से सराबोर थी। सबसे अच्छी बात तो यह थी कि इन चार दिनों में युवती भी उसे बालकनी में खड़े देख चुकी थी। जो दो बार उसे हाथ जोड़ कर शालीनता के साथ प्रणाम भी कर चुकी थी। सम्भवतः एक अतिथि-देवता के रूप में। पहाड़ी परिवेश से जुड़े निश्छल संस्कारों के चलते। इस सहज-सरल सम्मान से लेखक की श्रद्धा नायिका को महानायिका की मान्यता दे चुकी थी।
अंततः इस यादगार प्रवास की चौथी रात कहानी पूरी हुई। अगले दिन दोपहर की बस से शहर वापसी का मन बना चुका लेखक एक हद तक अपनी सफलता को लेकर उत्साहित था। वहीं दूसरी ओर एक सुरम्य वादी और नायिका से बिछोह का अवसाद भी मन में था। उसने वापसी से पहले अपनी अब तक की सर्वोत्तम कहानी की नायिका को शुक्रिया कहने का मन बनाया और सो गया। अगले दिन भोजन के बाद लेखक कॉटेज से निकल कर उस ढलान वाले रास्ते की ओर चल पड़ा जो उस युवती के घर की ओर जाता था। मन में एक संकोच था लेकिन भावनाओं को मानो पंख लगे हुए थे। क़दम ख़ुद ऐसे बढ़ रहे थे मानो कोई अदृश्य सी चुम्बकीय शक्ति उन्हें अपनी ओर खींच रही हो। दिमाग़ में पहली और शायद आख़िरी मुलाक़ात को लेकर बहुत कुछ चल रहा था। कुछ देर बाद वो उस घर के बाहर था। घर का दरवाज़ा शायद अंदर से बंद नहीं था। यह संकेत दोनों किवाड़ों के बीच की झिरी दे रही थी। इससे पहले कि उसका हाथ सांकल बजाने के लिए बढ़ता, गालियों का सैलाब सा बाहर आया। वही चीख, वही कर्कश स्वर, वही लहज़ा, जिससे वो अपरिचित नहीं था। हाथ अपनी जगह रुक गया। नज़र झिरी के पार उस कच्चे अहाते की ओर गई, जो बालकनी से कभी नहीं दिखा। जो दिख रहा था वो हतप्रभ कर देने वाला था। एक झकोले सी खटिया पर एक कृशकाय बुढ़िया असहाय अवस्था में पड़ी हुई थी। सिर पर कपास से बाल उसकी उम्र की चुगली कर रहे थे और ढांचे सा शरीर अवस्था की कहानी कहने में सक्षम था। पास ही हमेशा सिर पर रहने वाला पल्लू कमर में खोंसे लेखक की नायिका खड़ी थी। जो हाथ में पकड़े घड़े का पानी बेरहमी के साथ बुढ़िया पर उलीच रही थी। वो भी एक पांव से उसके जर्जर तन पर प्रहार करते हुए। दृश्य मर्मान्तक भी थे और अप्रत्याशित भी। सारी कहानी क्षण भर में खंडित हो चुकी थी। सारी उपमाएं निर्वस्त्र हो चुकी थीं। विशेषण सड़ांध मारते से प्रतीत हो रहे थे। लग रहा था कि पैरों के नीचे ज़मीन का टुकड़ा तक नहीं बचा है। आहत सा मन अपराधबोध से ग्रस्त जान पड़ता था। शरीर मानो सन्निपात की स्थिति में था।
अब लेखक की पीठ घर के दरवाज़े की ओर थी। निढाल क़दम उसके बेजान से जिस्म को कॉटेज की ओर ले जा रहे थे। जहाँ से उसे पैक सूटकेस उठा कर सीधे बस-अड्डे जाना था। लेखक ने कमरे में पहुंच कर पलंग पर रखा सूटकेस खोला। उसमें एहतियात से रखी गई डायरी को कांपते हाथों से बाहर निकाला। उसे लेकर बाहर बालकनी में आया। कहानी के सभी पन्नों को जुनून के साथ डायरी से फाड़ा और चिंदी-चिंदी कर हवा में उड़ा दिया। नायिका उस समय आंगन में बैठी सूप से अनाज फटक रही थी। बिल्कुल एक कर्मयोगिनी नारी की तरह। जिसके सिर पर सलीके से रखा पल्लू मानो लेखक की खिल्ली उड़ा रहा था।
जी हां! कहानी लग्भग ऐसी ही थी। जिसे मैने शायद 1986 में दूरदर्शन पर देखा। हिंदी साहित्य की अमर-कथा के नाम से प्रसारित एक स्वतंत्र धारावाहिक में। कहानी किसकी थी, याद नहीं। याद है तो बस इतना कि सच में कालजयी थी। जिसे फिल्मांकन व किरदारों ने मानस में हमेशा के लिए स्थापित कर दिया। ऐसा न होता तो आज क़रीबन 36 साल बाद यह लिख पाना इतना आसान न होता। यह साबित करना भी कि दुनिया में झूठ “कानों सुना” ही नहीं, “आंखों देखा” भी हो सकता है। जो हमारी कल्पना व चेतना ही नहीं आत्मा को झकझोरने की भी सामर्थ्य रखता है।
अब अपने मक़सद पर आता हूँ, जो यह सब लिखने का आधार बना। हम दुनिया में जब तब किसी को भी, किसी भी वजह से आदर्श मान बैठते हैं। बाहरी सौंदर्य और हाव-भाव से प्रभावित होकर। हम उसके बारे में मनचाही धारणाएं बना लेते हैं और एक नए नज़रिए से स्वीकारने लगते हैं। दिखाई देने वाली उसकी बाहरी खूबियां जादू बन कर हमारे सिर पर ऐसी सवार होती हैं कि वो हमें मसीहा लगने लगता है। उसे कोसने या अपमानित करने वाले शत्रुवत प्रतीत होते हैं और हम उसके तिलिस्म में उलझ जाते हैं। वही तिलिस्म, जिसे रचा जाना आज के दौर में बेहद आसान है। ऐसे में ज़रूरी हर किसी के दूसरे पहलू से पूरी तरह अवगत होने की है ताकि न पश्चाताप करना पड़े न ग्लानिवश पृष्ठ फाड़ने पर विवश होना पड़े। काश, यह सामर्थ्य ईश्वर आज के मायालोक में सब को दे। आमीन।।

1 Like · 225 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
You may also like:
ग़ज़ल
ग़ज़ल
ईश्वर दयाल गोस्वामी
Where have you gone
Where have you gone
VINOD CHAUHAN
हाय रे गर्मी
हाय रे गर्मी
अनिल "आदर्श"
कभी मायूस मत होना दोस्तों,
कभी मायूस मत होना दोस्तों,
Ranjeet kumar patre
" सब किमे बदलग्या "
Dr Meenu Poonia
जागो जागो तुम सरकार
जागो जागो तुम सरकार
gurudeenverma198
" खामोशी "
Aarti sirsat
पत्तल
पत्तल
Rituraj shivem verma
हो मेहनत सच्चे दिल से,अक्सर परिणाम बदल जाते हैं
हो मेहनत सच्चे दिल से,अक्सर परिणाम बदल जाते हैं
पूर्वार्थ
बात मेरी मान लो - कविता
बात मेरी मान लो - कविता
अनिल कुमार गुप्ता 'अंजुम'
अपनी क़िस्मत को हम
अपनी क़िस्मत को हम
Dr fauzia Naseem shad
मेरी कलम से…
मेरी कलम से…
Anand Kumar
मां शैलपुत्री देवी
मां शैलपुत्री देवी
Harminder Kaur
2869.*पूर्णिका*
2869.*पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
स्त्री न देवी है, न दासी है
स्त्री न देवी है, न दासी है
Manju Singh
घर बाहर जूझती महिलाएं(A poem for all working women)
घर बाहर जूझती महिलाएं(A poem for all working women)
सोलंकी प्रशांत (An Explorer Of Life)
बढ़ना चाहते है हम भी आगे ,
बढ़ना चाहते है हम भी आगे ,
ओनिका सेतिया 'अनु '
विजेता
विजेता
Sanjay ' शून्य'
अब कहां लौटते हैं नादान परिंदे अपने घर को,
अब कहां लौटते हैं नादान परिंदे अपने घर को,
डॉ. शशांक शर्मा "रईस"
"ओखली"
Dr. Kishan tandon kranti
मंथन
मंथन
Shyam Sundar Subramanian
ऐसे यूं ना देख
ऐसे यूं ना देख
Shashank Mishra
इज्जत कितनी देनी है जब ये लिबास तय करता है
इज्जत कितनी देनी है जब ये लिबास तय करता है
सिद्धार्थ गोरखपुरी
एक मशाल जलाओ तो यारों,
एक मशाल जलाओ तो यारों,
नेताम आर सी
चरागो पर मुस्कुराते चहरे
चरागो पर मुस्कुराते चहरे
शेखर सिंह
जय बोलो मानवता की🙏
जय बोलो मानवता की🙏
तारकेश्‍वर प्रसाद तरुण
#आत्मीय_मंगलकामनाएं
#आत्मीय_मंगलकामनाएं
*प्रणय प्रभात*
सब गुण संपन्य छी मुदा बहिर बनि अपने तालें नचैत छी  !
सब गुण संपन्य छी मुदा बहिर बनि अपने तालें नचैत छी !
DrLakshman Jha Parimal
दोस्ती एक पवित्र बंधन
दोस्ती एक पवित्र बंधन
AMRESH KUMAR VERMA
नववर्ष।
नववर्ष।
Manisha Manjari
Loading...