■ पुरानी कढ़ी में नया उवाल
■ कांग्रेस को मिल रहा है बूस्ट
★ ज़िलों तक दिखने लगी ऊर्जा
★ इस बार देगी दमदार चुनौती
【प्रणय प्रभात】
नया साल पुरानी कांग्रेस के लिए बीते सालों से कुछ बेहतर नज़र आ रहा है। इसके पीछे पार्टी संगठन में हुआ प्रतीकात्मक नेतृत्व परिवर्तन, राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा से बन रहा माहौल अथवा हिमाचल प्रदेश में मिली जीत साझा कारण माने जा सकते हैं। जिसमें इस साल होने वाले 9 राज्यों के विधान-सभा चुनावों का जोश भी उत्प्रेरक बन रहा है। जिन्हें 2024 के महासमर पर सीधा असर डालने वाला समझा जा रहा है। प्रमुख राज्य के तौर पर 2023 के चुनावों का आग़ाज़ कर्नाटक से होना है। जहां भाजपा पर सत्ता जनमत की जगह तिकड़म से हासिल करने का आरोप कांग्रेस लगाती आ रही है। साल के अंतिम दौर में मध्यप्रदेश, राजस्थम व छत्तीसगढ़ जैसे हिंदी-भाषी क्षेत्र में चुनाव तय हैं। जिन पर कांग्रेस की पैनी नज़र है।
राजस्थान और छत्तीसगढ़ में उसे अपनी सरकारों को बचाने की जंग लड़नी है। वहीं मध्यप्रदेश में 2020 का हिसाब साफ करना है। जब उसके अपने एक गुट की बग़ावत के चलते सत्ता गंवानी पड़ी थी। हालांकि राजस्थान में गहलोत-पायलट और छत्तीसगढ़ में बघेल-सिंहदेव के बीच की अंतर्कलह कांग्रेस की परेशानी की बड़ी वजह है। तथापि मध्यप्रदेश में वापसी की आस कांग्रेस को बड़ी ऊर्जा दे रही है। जिसका असर राजधानी भोपाल से लेकर ज़िला स्तर तक दिखाई दे रहा है। जिसे कड़ाके की सर्दी में और आंच देने के लिए कांग्रेस नेतृत्व ने एक अभियान भी छेड़ दिया है। “नया साल, नई सरकार” शीर्षक से अभियान का श्रीगणेश नए साल के पहले सप्ताह में किया गया है। जिसके तहत प्रदेश में कांग्रेस सरकार की सुनिश्चित वापसी का दावा होर्डिंग्स लगा कर किया जा रहा है। अभियान का एक मक़सद यह प्रचारित करना भी है कि चुनाव प्रदेश अध्यक्ष व पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ के नेतृत्व में उन्हीं के चेहरे पर लड़ा जाएगा।
साफ पता चलता है कि कांग्रेस ने अपने पत्ते अकारण नहीं बल्कि एक सुनियोजित रणनीति के तहत खोले हैं। जिसका पहला उद्देश्य सीएम पद के लिए विकल्पों के अभाव को छुपाना है। वहीं दूसरा बड़ा उद्देश्य भाजपाई कुटुंब में नेतृत्व को लेकर सुलगती आंच को हवा देना है। ताकि कांग्रेस पर नेतृत्व थोपने का आरोप मढ़ने वाली भाजपा को उसी के दांव में फंसाया जा सके। कांग्रेस को भाजपा के अंदरूनी हालात की पूरी-पूरी जानकारी है। उसे पता है कि 2023 के चुनाव को किसी एक चेहरे पर लड़ना भाजपा के लिए टेढ़ी खीर होगा। ऐसे में यदि भाजपा बिना किसी चेहरे को आगे किए चुनावी समर में उतरती है तो कांग्रेस को उसे साल भर घेरने और दवाब बनाने का मौक़ा मिल जाएगा। वहीं किसी एक चेहरे को सामने लाते ही एकता के संतरे का छिलका उतरते वक़्त नहीं लगेगा। दलगत अनुशासन की बातें करने वाली भाजपाई नारंगी की सारी फांके ख़ुद सामने आ जाएंगी। जिसके बाद घोषित-अघोषित फूट और बग़ावत का सीधा लाभ कांग्रेस को मिलेगा।
अपने स्थाई जनाधार को लेकर आश्वस्त कांग्रेस को लगता है कि 2023 के चुनाव को त्रिकोणीय बनाने वाली “आप की झाड़ू” भी भाजपा के वोट बैंक को काफ़ी हद तक साफ़ करेगी। जिसका संकेत नगर निकाय चुनावों के नतीजे भी दे चुके हैं। बेशक़ भाजपा नगर सरकार बनाने के खेल में कांग्रेस से आगे रही हो, लेकिन उसे पार्टीगत बाग़ियों व निर्दलीयों सहित आप उम्मीदवारों के कारण ख़ासी दिक़्क़तों का सामना करना पड़ा है। इसके अलावा विधानसभा स्तर के चुनाव में सत्ताबल के बलबूते सरकारी संसाधनों व मशीनरी का बेजा उपयोग कर पाना भी भाजपा के लिए आसान नहीं होगा। जहां तक पार्टी आलाकमान का सवाल है, उसकी हताशा को घटाने का काम हिमाचल की जीत ने भी किया है। जो तमाम हारों के प्रहार के संक्रमण काल में उसके लिए बूस्टर डोज़ साबित होने का काम किया है। कांग्रेस को बड़ा भरोसा सरकारों की परफॉर्मेंस के बूते राजस्थान व छत्तीसगढ़ में एंटी-इनकंबेंसी से निपट पाने का भी है। उसे लगता है कि पदयात्रा की सफ़लता से उत्साहित राहुल गांधी प्रियंका वाड्रा और ख़ास रणनीतिकारों की मदद से आंतरिक झंझटों का हल निकाल लेंगे।
भारत जोड़ो पदयात्रा में रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराज रामन सहित तमाम हस्तियों की भागीदारी से भी कांग्रेस की डगमग नैया को आत्मविश्वास का सहारा मिला है। इसके अलावा 2024 के आम चुनाव में विपक्ष की ओर से राहुल गांधी के नाम को नितीश कुमार के ज़ुबानी समर्थन ने भी कांग्रेस के उत्साह में इज़ाफ़ा किया है। जिनके समर्थन का मतलब राजद (लालू कबीले) का साथ मिलना भी माना जा रहा है। हालांकि बदलती हवा के साथ यू-टर्न लेने के लिए चर्चित नेताओं का डेढ़ साल बाद तक अपनी बात पर अडिग रहना कतई विश्वसनीय नहीं है। तथापि सत्ता के सेमीफाइनल में समर्थन के बोल कांग्रेस के मनोबल को बढाने वाले हैं। जिसका असर बड़ी हद तक मैदानी कार्यकर्ताओं व किसी हद तक मतदाताओं पर भी अवश्य पड़ेगा। मध्यप्रदेश में भाजपा की अंदरूनी गोलबन्दी से बख़ूबी वाकिफ़ कांग्रेस को भाजपा में ग़दर का भरोसा अपने भूतपूर्व सिपहसालारों की वजह से भी है। जो सियासी धर्मांतरण के 3 साल बाद भाजपा के पुराने वृक्षों पर “अमरबेल” की तरह हावी हो चुके हैं। प्रदेश के तख्ता-पलट अभियान में कामयाबी के बूते सत्ता से संगठन तक अपनी पकड़ बना चुके कांग्रेस के पुराने क्षत्रप भाजपाई सूरमाओं के हितों का अधिग्रहण 2023 में भी करेंगे। जिसे धाकड़ भाजपाई सूरमा अवैध अतिक्रमण माने बिना नहीं रहेंगे। इसके बाद छिड़ने वाला घमासान कांग्रेस के लिए मुफ़ीद साबित होगा।
प्रदेश में पुरानी पेंशन की जायज़ मांग उठाते राज्य कर्मचारियों, छलावे और वादाख़िलाफ़ी का आरोप लगाकर आंदोलित होते किसान, बेरोज़गारी से क्षुब्ध नौजवान, मंहगाई व भ्रष्टाचार से पीड़ित आम-जन, मंदी और भारी कराधान से प्रभावित छोटे व मंझोले कारोबारी कांग्रेस की आस को बढाने का काम हाल-फ़िलहाल कर ही रहे हैं। संविदा व तदर्थ सहित आउटसोर्स कर्मचारियों के नियमितीकरण की मांग के साथ जारी आंदोलन भी कांग्रेस को प्राणवायु दे रहे हैं। लाखों आशा-ऊषा कार्यकर्ताओ व सहयोगनियों सहित आंगनबाड़ी कार्यकर्ता व सहायिकाओं का असंतोष भी कांग्रेसी उम्मीदों के ग़ुब्बारे में हवा भर रहा है। इसका प्रमाण कांग्रेस के अलमबरदार सदन से सड़क तक भाजपा सरकार को ललकारते हुए पेश कर रहे हैं। चैनलों की बहस में भी पार्टी प्रवक्ताओं तथा विचारधारा समर्थक विश्लेषकों को मुखर होते देखा जा रहा है। जो हमला बोलने से लेकर पलटवार तक का कोई मौका नही गंवा रहे हैं। कुल मिला कर शीतलहर के बीच सियासी सरगर्मी लाने का काम करने में कांग्रेस पूरी शिद्दत से जुटी हुई है।
कांग्रेस और कांग्रेसियों का यह दमखम और जोश चुनाव के निर्णायक दौर तक बना रह पाता है या नहीं, यह आने वाला समय बताएगा। बावजूद इसके इतना तय है कि जनता के दरबार मे कांग्रेस इस बार कमज़ोर नहीं सशक्त विकल्प के रूप में सामने आएगी। जो भाजपा को हर मोर्चे पर बड़ी और कड़ी चुनौती देगी। जिसमें उसे कांग्रेसियों के साथ-साथ उन लाखों आम मतदाताओं व नागरिकों का भरपूर साथ मिलेगा, जो मौजूदा हालात में घोर अप्रसन्न व असंतुष्ट हैं। जिसकी बड़ी वजह ज़मीनी समस्याओं व हालातों से कहीं अधिक निरंकुश नौकरशाह व सत्ता-मद में चूर पदाधिकारी और उनके मदांध पिछलग्गू हैं, जिन्होंने अपने-अपने आकाओं को दबंग माफिया बनाने का काम किया है।