■ उल्लू छाप…बिचारे
■ मनहूसियत के मारे
【प्रणय प्रभात】
“जो हैं क़ाबिले-दीद नहीं।
उनसे कोई उम्मीद नहीं।।
उन्हें पसंद फ़क़त मातम।
दीवाली या ईद नहीं।।”
आज की यह चार पंक्तियाँ आदतन बेचारगी और स्वाभाविक लाचारगी के प्रतीकों के लिए हैं। जिन्हें सामाजिक सरोकारों से विमुख होने के कारण वैचारिक और व्यावहारिक असामाजिक
भी कहा जा सकता है। जो न घर के माने जा सकते हैं न घाट के।
इन्हें देख कर ही ज्ञान होता है कि उल्लू केवल शाखों पर नहीं, समाज में भी होते हैं। जिनके चेहरे पर हमेशा मातम की छाया दिखाई देती है। ख़ुशी के पल उन्हें नागवार होते हैं। ऐसे लोग किसी दीन-धरम के नहीं होते। न वर्तमान के लिहाज से और ना ही भविष्य के नज़रिए से।।