६० के दशक की दीपावली
गांव बाला कच्चा घर तोड़ कर नया पक्का मकान बन गया था। आज बर्षों बाद नवरात्र में कुलदेवी पूजा एवं नए मकान के उद्घाटन में सभी भाई बहन एकत्रित हुए थे, नौकरी काम धन्धे के लिए संजले भैया को छोड़कर सभी बाहर अलग-अलग शहरों में रहने लगे हैं।आज सभी पुरानी यादें ताजा हो गईं,घर का स्वरूप बदल गया, लेकिन पुराना घर और मां दोनों की ही बहुत याद आ रही थी,आए भी क्यों नहीं, यहीं तो जीवन के वे स्वर्णिम पल गुजरे हैं जो भूले नहीं भुलाते।कच्चा लिपा पुता हुआ घर वो आंगन,वो कलात्मक रसोई घर जिसके प्रवेश द्वार पर मां ने कोठियां बनाईं थीं, दोनों कोठियों के मध्य सुंदर आर्च बनी हुई थी,रसोई घर में दो लगे हुए चूल्हे हुआ करते थे, जिनकी आग कभी नहीं बुझा करती थी। रसोई में रोज चौका पीला मिट्टी से लगता था,तब आग बरोसी में कर दी जाती थी। रसोई घर से जुड़ा हुआ बड़ा सा हाल था जिसमें भगवान का पूजन स्थान भी मां ने महाराव दार बनाया था,दीबार से सटा हुआ हाल के बराबर ही दो ढाई फीट चौड़ा चबूतरा बना हुआ था, फिर एक हाल , फिर दालान खुला हुआ आंगन एवं आंगन के बीचों-बीच चबूतरे पर बना एक बहुत ही सुन्दर तुलसी चौरा हुआ करता था। घर के पीछे गाय बैल एवं खेती किसानी के सामान रखने का छप्पर था। घर के मुख्य द्वार के दोनों ओर दो कमरे थे जिसमें दादा जी सोए बैठे रहते थे, बाहरी दालान में उनका बहुत भारी तखत शोभायमान रहता था।डोरिया बिछा रहता था, जिस पर सभी गांव के बुजुर्ग बैठे रहते,गंजपा, चौपड़ एवं बातें किया करते थे,जो ज्ञान प़द एवं रोचक हुआ करतीं थीं, खेती किसानी, सामाजिक राजनीतिक सभी तरह की चर्चाएं हुआ करतीं थीं।
इधर घर के अंदर दादी का राज था,घर में घी दूध होता था,उस जमाने में बिजली नहीं हुआ करती थी,पीतल की चिमनी लालटेन जला करती थी। दिनचर्या भोर ४-५बजे से शुरू हो जाती थी, बड़ी मां बुआ मां चक्की पीसते हुए गीत गाया करतीं जो सुरीले एवं अर्थ पूर्ण भजन हुआ करते थे,दादी की सुबह होने से पूर्व ही बाहर एबं आंगन में झाड़ू लग जाती,गाय भैंस की दुहने का काम ताऊजी करते। सुबह-सुबह हम सब बच्चों को दादी कांसे की थाली कटोरी में रात को बनी हुई दूध महेरी देतीं, जिसका स्वाद भूले नहीं भुलाता।
पानी कुएं से लाना पड़ता था,जो मां एवं बहिनें लातीं थीं,नहा धोकर रोटी दिन में दूसरे अन्य घरेलू काम,फिर दिया बाती फिर रात की ब्यारू। कितना काम करतीं थीं मां,आज की बहू बेटियां कर तो क्या पाएंगी सोच भी नहीं सकतीं।
मुझे अच्छी तरह याद है, कुलदेवी पूजन से पहले कैंसे पूरे घर की सफाई लिपाई पुताई किया करतीं थीं। फिर दीपावली की तैयारियों में जुट जातीं थीं, कितना सुहाना मौसम हो जाता था गांव में,बर्षा ऋतु के बाद खेतों में पगडंडियों से जाते हुए हरियाली देखना वो हवा आज भी रोमांचित करती है, नदियों में पानी निर्मल बहने लगता है,खेत हल बख्खर बहुत ही अच्छा लगता था। सभी अपने अपने मकान मिट्टी की चिटें लगाकर ठीक करते, फिर छुई (सफेद रंग) एवं गेरू से पुते मकानों की शोभा ही कुछ और होती थी।
धन तेरस के पहले ही सारे कार्य पूर्ण हो जाते,रात में दिए जलाए जाते।चौदस के दिन हाट बाजार से बचा हुआ जरुरत का सामान,हम लोगों को पटाखे बम के गोले,नए कपड़े आ जाते,हम बहुत खुश हो जाते, उछल उछल कर एक दूसरे को बताया करते थे।
अमावस्या के दिन हम सब अपने गाय बैल को नदी में नहलाते,शाम होते ही पूजन की तैयारी शुरू हो जाती, लक्ष्मी पूजा के बाद,गाय का पूजन कियाजाता,उनको कलर किया जाता, मोरपंख एवं आभूषण से सजाया जाता।घर में माबा तैयार कर गुजिया पपड़ियां और मिठाई बनती थी,जो कई दिनों चलती थी।
दिपावली के दूसरे दिन गोवर्धन पूजा होती,गाय बैल को पटाखों से विदकाना बहुत मनोरंजक होता था।
दिवाली के दूसरे दिन भाईदूज मनाई जाती थी, जिसमें बहिनें भाई का तिलक कर उसके सुखद भविष्य की कामना करतीं हैं।
इन्हीं दिनों में अगली फसल के लिए बीज बोने की शुरुआत होती है, इसके लिए बैलों को ४ बजे रात से ही बीर (चारे बाली पडत भूमि) पर चराने जाना होता था,उन रातों के अलग-अलग किस्से सुनने सुनाने का अलग ही मजा था।
दादा दादी मां पिताजी, उनके साथ के और लोग सब चले गए। समय और तरक्की के हिसाब से गांव भी बदल गए ।
कितना काम करतीं थीं मां, कितना कठिन काम होता था गांव का। कितना स्वादिष्ट भोजन कितनी चिंता करतीं थीं हम लोगों की।अब सब सपना रह गया,न अब वो गांव रहा न अब वो वातावरण सब कुछ बदल गया है, नहीं बदलीं तो बस पुरानी यादें।
सुरेश कुमार चतुर्वेदी