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2 Aug 2021 · 1 min read

ज़ख़्म देती रही ये दुनिया

हमने जारी ये सिलसिला रक्खा!
आपसे हर- वक़्त राब्ता रक्खा!

क़रीब और क़रीब होता रहा था मैं,
उसी ने जाने क्यूँ फासला रक्खा!

क़दम-क़दम पे ठोकरें लगी मुझको,
चलने का हमने मगर हौसला रक्खा!

ज़ख्म देती रही ये दुनिया लेकिन,
दर्द सहने का दिल में माद्दा रक्खा!

मैं जानता था वो इतना बुरा भी नहीं,
ज़माने ने जिसे बहुत बरगला रक्खा!

उसने सोचा ‘मुमताज़’ ख़फ़ा है उससे,
पास आया तो गले से लगा रक्खा!!

-मोहम्मद मुमताज़ हसन
रिकाबगंज, टिकारी, गया
बिहार -824236

3 Likes · 217 Views
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