ज़िन्दगी रास नहीं आती
दर्द से दोस्ती है मेरी
खुशियां रास नही आती
ओढ़ भले लेता हूँ चादर
पर आंखों को नींद नही आती
कुछ ऐसा किया है जमाने ने मेरे साथ
मौत माँगना चाहता हूँ
अब ये ज़िन्दगी रास नहीं आती
जाने किसे किस बात का दोष दूँ
इंसानो की भीड़ में भगवान ढूंढने निकला था
मुझे नहीं पता था
पत्थर का भगवान मंदिर के बाहर भी था
जो गुरु बन कर अंगूठा काट गया था
जो दोस्त बन कर सीने में खंजर उतार गया था
जो रिश्तों की बिसात पर ज़िन्दगी की चाल चल गया था
बस इसलिए
अब ये ज़िन्दगी रास नहीं आती
मौत अलबत्ता आ जाये मुझे
पर उन भावनाओ के व्यापारियों को
ज़िन्दगी रास न आये
उन्हें सुकून की नींद नसीब ना हो कभी
उनकी ज़िंदगी करवटे बदलते बीत जाए