ज़िन्दगी बदरंग देखो हो गई है
उड़ गये हैं रंग रिश्तों के यहाँ पर
ज़िन्दगी बदरंग देखो हो गई है
आचरण में औपचारिकता बढ़ी है
दृष्टि भी केवल दिखावे पर गढ़ी है
शर्म भी दिखती न आँखों में कहीं अब
अजनबीपन की परत उन पर चढ़ी है
रीत अपनेपन की लगता खो गई है
ज़िन्दगी बदरंग देखो हो गई है
अब रही व्यवहार की कोई न कीमत*
पड़ गई स्वाधीनता की आज आदत
आधुनिकता की चली इन आँधियों ने
अब बदल डाली है शिक्षा की भी सूरत*
ये अकेलेपन को दिल में बो गई है
ज़िन्दगी बदरंग देखो हो गई है
जान का दुश्मन बना भाई का भाई
धर्म के भी नाम पर कितनी लड़ाई
स्वार्थ की हद पार यूँ होने लगी है
पीर भी अब हो गई अपनी पराई
लग रहा इंसानियत तो सो गई है
ज़िन्दगी बदरंग देखो हो गई है
डॉ अर्चना गुप्ता